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________________ ३९६ पुरुषार्थसिद्धथुपाय अन्वय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि [ बिनयो वैय्यास्यं ] विनय और वैयावृत्य । तथा प्रायश्चित्त उत्सर्ग: ] प्रायश्चित्त और उत्सर्ग ( त्याग ) [ अथ स्वाध्याय: ध्यानं | और स्वाध्याय एवं ध्यान [ इति अन्तरंग तप: निधेव्यं भवति ] ये छह अन्तरंग तप हमेशा धारण करने योग्य हैं....यथाशक्ति धारण करना चाहिये ।। १९९ ।। भावार्थ-तप क्या है ? आत्माकी रक्षा करने के लिये कोट व किले के समान है अर्थात् जिस प्रकार कोट व किलेके मौजद रहते शत्रु या चोर डाकू भीतर प्रवेश नहीं कर पाते और सुरक्षित जानमाल रहता है। लोक उसी तरह तपोंके रहते समय, कर्मशत्रु आत्माके पास नहीं आ पाते, न हानि पहुँचा सकते हैं ( संवर रहता है । यह आश्चर्यकारी घटना है, आत्मरक्षाका अपूर्व उपाय है। तग क्या है ? वैराग्यभाव है, इच्छाओंका निरोध है जो संवररूप है। प्रत्येकका स्वरूप बताया जाता है। (१) विनय नामक अन्तरंग तप-सम्यग्दर्शनको प्राप्ति होने पर हो यह हो सकता है। कारण कि जिसको पूज्य-पूजन या उपास्य-उपासक अथवा हेय-उपादेयका ज्ञान न हा बह क्या विनय कर सकता है एवं किसकी विनय कर सकता है ? यह विचारणीय है। सम्यग्दृष्टि जोब ही निश्चयरूपस...-दर्शन-ज्ञान-नारित्र-तप-उपचार ये पांच विनय करता है तथा वह धर्मानुरागसे (धर्मात्माओंकी) नि:स्वार्थ बिनय करता है-स्वार्थवश नहीं। मिथ्यादष्टि स्वार्थवश विनय करता है और वह महा अहंकारी ( मानी ) होता है-वह जातिपाति और विद्याका महान् घमंड रखता है किन्तु स्वार्थवश बिना श्रद्धाके कभी-कभी सकता है, हृदयसे नहीं कहा जा सकता। गुणाधिकों एवं संयमीजनोंकी आवभगत करना चित्तमें प्रसन्नताका होना मानकषायका अभाद होना, विनयतय कहलाता है। विनययोग्य उपर्युक्त पांच प्रकार हैं, बिनय कषायको मन्दतासे होती है-गुणग्राहकतासे भी होती है, अस्तु । विनयके दो भेद होते हैं । १) निश्चयविनय (आत्माका बिनय (२)व्यवहार विनय ( शरीरका विनय, तीर्थबन्दना आदि सब उपचार विनय है। (२) वैग्यावृत्त्यतप-यह भी सम्यग्दृष्टिके ही होना संभव है जो विवेकी और गुणग्राहक होता है। सेवासुश्रुषा आदि करना यावृत्त्य कहलाता है। उसमें अनेक कार्य शामिल हैं। धर्मानुरागसे यह भक्तिवश वैसा कार्य करता है किन्त उसकी बह देष हो समझता है. बन्धका कारण मानता है, अतः भोलरसे अरुचि रखता है क्योंकि वह सम्यग्दर्शनमें दोष वा अतिचार है। फलतः निश्चयनयसे. मोक्षमार्ग या मोक्षमार्गीको वैवात्ति करना उचित है और व्यवहारनयसे उनके शरीरादिको भी सेवावृत्ति करना कचित् उचित है, संयोग सम्बन्धके नाते वैसा करना चाहिये । उससे पुण्यबंध होता है, पापबंध नहीं होता, जो गृहस्थके लिये प्रायः हितकर है। शुद्ध आहारका देना-औषधि देना आदि सब इसी में शामिल है। (३ ) प्रायश्चित्ततप--- सम्यग्दष्टि ही कर सकता है क्योंकि उसीको यह शान होता है कि 'यह अपराध है और इसको शुद्धिका यह उपाय है, इत्यादि.----प्रायश्चिसके १० भेद माने गये हैं। सम्यग्दृष्टि हमेशा अपराध छुड़ाने का प्रयत्न करता है--निरपराध रहना चाहता है, वही सबसे
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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