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________________ २२८ पुरुषार्थसिद्धा हो । पाप व पारा दव नहीं सकता यह नियम है, अवश्य प्रकट हो जाता है । कभी-कभी इसी लोकमें और कभी-कभी परलोकमें वह अपना फल देता है इत्यादि । कोई यह कुतर्क करता है कि छागादिक स्थूल प्राणियों को मारकर खाने में धर्म होता है क्योंकि raries are चीजोंके खाने में अनेक छोटे जीवोंकी जो हिंसा होती है वह बच जावेगी याने उनको रक्षा होनेसे धर्म की प्राप्ति हो जायगी ( संभव है । यह पुष्टि वह करता है । यथा--- | बहुसघातजनितादर्शनाद्वरमेकसच्चघातोत्थम् इत्याकलय्य कार्यं न महासन्यस्य हिंसनं जातु ॥८२॥ पक्ष बहुजtter की। इससे अच्छा भोजन बनता बढ़े जीवके मारे || ऐसा निर्दय कुतर्क करके जीवघातना कभी नहीं । छोटा बड़ा जीव धातेसे पाप लगत है उसे सही ||२२|| अन्वय अर्थ --- कोई वादी कुतकं करता है कि [ बहुसावधान जनतामा एकसात अशनं वरम् ] शाक अन्न आदिके द्वारा प्यार किये जानेवाले भोजन ( आहार में बहुत जीवोंका विघास होता है अतः उसकी अपेक्षा एक बड़े जीवको मारकर उसके मांससे प्यार किये जानेवाले भोजनमें कमती हिंसा होती है अतः वह भोजन श्रेष्ठ है ( उत्तम ) है, उससे छोटे-छोटे बहुतसे जोव मरने से बच जाते हैं फलतः उनका बचना धर्मका हेतु है इत्यादि हिंसाको पुष्टि वह (वादी करता है। आचार्य उसका खंडन करते हैं कि [ इस्यालदय महासस्वस्थ हिंसनं जातु न कार्य ] उक्त प्रकारके कुतर्कपर विश्वास करके कभी भी बड़े जीवकी हिंसा नहीं करनी चाहिये - हिंसा करना महापाप व धर्म है, वह धर्म नहीं हो सकता इत्यादि ॥ ८२॥ } भावार्थ ---- अन्यमतों में आहारदानको उच्च स्थान दिया गया है। वह बड़ा दान या महादान माना गया है । तदनुसार उनका कहना है कि यदि आहारदानके लिये हिंसा भी करना पड़े तो पाप नहीं लगता, कारण कि उद्देश्य अतिथिदान का है। उसके अन्दर भक्ति व परोपकार शामिल रहता है, जिससे धर्मं प्राप्त होता है इत्यादि । इसका आचार्य खंडन करते हैं कि भक्तिभाव कथंचित् ( व्यवहारनयसे । धर्म माना जा सकता है किन्तु पापकार्यं करके धर्मोपार्जन करना यह उचित नहीं है अपितु अनुचित व वर्जनीय है। कारण कि पापकार्यका फल अलग मिलता है और पुण्यकार्य ( भक्ति व परोपकार )का फल अलग मिलता है। इससे पापके साथ पुण्य करना ठाक नहीं है । अथवा धर्मके खातिर ( अतिथिदान के खातिर ) अधर्म या हिंसा करना मना है । उद्देश्य खराब अर्थात् हिंसाका नहीं होना चाहिये तब क्रियाका फल अच्छा मिलता है, कारण कि धर्म और अधर्म परिणामोंसे हुआ करता है यह न्याय है । अतएव जब अन्यमती पूज्यपुरुषोंके लिये भोजन करानेको प्राणीका वध ( हिंसा-हत्या ) करते हैं सब वे संकल्प करके ही करते हैं अतएव के पाप अधर्म के i उन
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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