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________________ থামিত্ম युक्त ) नहीं लगाना चाहिये। ब्रत किसीके दवारसे या छलकपट । मायाचार ) से नहीं धारण किया जाता..बह तो स्वेच्छासे अपनी रुचि के अनुसार ही धारण किया जाता है, सभी वह बास्त. विक पलता है अन्यथा वह भ्रष्ट हो जाता है। फलतः जबतक स्वयं योग्यता न हो तबतक कमी व्रत धारण करनेका स्वांग नहीं करना चाहिये, पराये बल व आश्वासनपर व्रत नहीं पलता यह पसका है। बिगड़ेका सुधार होना उमोके हृदयपरिवर्तनपर निर्भर है-दूसरा कोई क्या करेगा? निमित्त या सहायक दुसरेका कार्य नहीं करते न कर सकते हैं. वे भी अपना ही कार्य अपने में करते रहते हैं । अतएव भ्रममें पड़ना लाभदायक नहीं होता ऐसा समझकर सही मार्ग अपनाना चाहिये। व्रत परस्पर सापेक्ष होते हैं अर्थात अपने विपक्षी अबत सहित होते हैं। परिणामस्वरूप पहिले जब अन्वत होता है तभी उसके बाद ( अब्रत छूटनेपर ) नती बनता है। इस तरह व्रत ब अवतको सापेक्षता समझना चाहिये । जैसेकि द्रव्य भावकी अपेक्षा रखता है बा भाव, द्रव्यकी अपेक्षा रखता है। विना सापेक्षताके एक अकेलेका कथन या व्यवहार हा हो नहीं सकता इत्यादि परस्पर संधि था सापेक्षता है । सर्वत्र सापेक्षता इसी तरह मानी जाती है व मानमा चाहिये ।।१८९|| आगे अनर्थदण्डत्याग गुणवतके पांच तिचार बतलाते हैं। कन्दर्पः कौत्कुच्यं भोगानर्थक्यमपि च मौखर्यम् । असमीक्षिताधिकरणं तृतीयशीलस्य पंचेति ॥१९०।। पद्य कामोद्दीपक वसन बोलना, काय कुचेष्टा भी करना। भोगों का अनियंप्रत करना, अधिक घाता भी करना। विना विचारे कार्य शु करना, तिचार ये कहलाने । नहीं प्रयोजन इनसे सधता, व्यर्थ समझाकर छुवाते ॥१०॥ अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ कन्दप्प: कौन्कुश्य अपि मागान क्या हँसी दिल्लगीके भंड वचन अर्थात् अश्लील बचन बोलना जिनो कामोद्दीपन हो.... विषयाकांक्षा बढ़े, तथा नारीरके अंगोपांगोंको विकाररूप बनाकर कुचेष्टा करना । इशारा करमा ) एवं निरर्थक अप्रयोजन भूत भोगोंका (पंचेन्द्रियोंके विषयोंका ) बहुत संग्रह करना ( व्यर्थ रागादिक बढ़ाना ) { च भोग्य असमीक्षिसाधिकरणं ] और अधिक वार्तालाप करना ( बाचालता करना ) तथा बिना सोचे-विचारे मनचाहा कार्य करना [ इति पा तापशीलस्य अभिचाराः ] उत्त पत्रि, तीसरे सीलन्द्रत । अनर्थदण्डत्यागवत ) के अतिचार हैं, उन्हें त्याग देना चाहिये, क्योंकि उनसे कोई लाभ नहीं होता, उल्टा अपराध व बंध होता है, रागादिक बढ़ाना महान् अपराध है ॥१९०।। भावार्थ-विना प्रयोजन व रागादिकषायवर्धक कामोंका करना अनर्थ कहलाता है। उससे १. उक्तं च... कन्दर्पकौत्कुच्यमौनयसिमीक्षाधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि ॥३२॥ त० सू० अ०७॥
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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