SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 460
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट ११९ गुणीका भेद करना व्यवहार है। भूतार्थ ( निश्चय ) का शब्दोंके द्वारा कथन करना भी व्यवहार कहलाताहै, यह व्यवहारका सामान्य लक्षण है, कारण कि निश्चयका ज्ञापन पराविद ( शब्दाश्रित ) होता है यह पराधीनता आती है। ५. साक्षात केवली ( सर्वज्ञ ) के ज्ञान में और श्रतकेवली (परोक्षज्ञानी) के ज्ञानमें तारतम्य ( हीनाधिकता ) होता हैं । (१) केवलोका सान सबसे बड़ा है, जिसमें विश्वका कोई पदार्थ विमा जाने रह नहीं सकता, लेकिन उसके द्वारा जाने गये सम्पूर्ण पदार्थ सर्वतः कहे महीं जा सकते, बहुत थोड़े कहे जाते हैं । जो कहे जाते हैं, उनका हो लेखन व वर्णन द्वादशांगरूप शास्त्रों में है, जिसको गणधर तैयार करते है। तदनुसार उन शास्त्रोंको परोक्ष जानने वाले जीद श्रुतकेवली माने जाते है। ऐसी स्थितिमें उनको केवली जैसा ( जितना) ज्ञान न होनेसे तारतम्य ( होनाधिकता ) पाया जाता है, बराबरी नहीं है । वैसे तो निश्चयसे संक्षेपमें वह जीव श्रुतकेवली है जो सिर्फ अपने शुद्ध { अg) आत्मामात्र को श्रुतज्ञान ( स्वसंवेदमज्ञान ) द्वारा जान लेता है। इसके सिवाय केवलज्ञान या कोई भी ज्ञान मिस्त्रयसे झयोंके आधीन नहीं है किन्तु स्वतंत्र है ( ज्ञेयोंके न होनेपर भी उनमें सर्वशक्ति है ) ज्ञान व श्रद्धान गुणमें यह खास विशेषता है तथा शाम-श्रद्धाम दोनों ही अखंड या निर्विकल्प है, कभी उनमें खंड या विकल्प नहीं होते। n .musiliminisanili (२) ज्ञानी ( सम्यग्दृष्टि) की क्ष्या और अज्ञानी (मिथ्यादृष्टि ) की दयामें भेद ( फर्क ) है। इसका खुलासा पंचास्तिकायकी गाया नं० १३७ में मौजूद है । सामान्यतः दया सम्यग्दृष्टि एवं मियादृष्टि दोनों पालते हैं ( करते हैं)। परन्तु सम्यग्दृष्टि मुख्यतया अपनी दया अर्थात् अपनी आत्माकी रक्षा (बचाव) करता है और उसके लिये संसार शारीर भोगोंसे अरुचि ( विरक्ति ) करता है, उन्हें हेय समझकर अपना भाव या उपयोग रागादिकसे हटाकर वीतरामता ( शुद्धता) में लगाता है, जिससे आपच और बंध नहीं होता, तब अपनी रक्षा बह कर लेता है यह तात्पर्य है। किन्तु जब उसके उपयोगमें रामपरिणति ओरधार होती है और उसका वेग दह नहीं रोक सकता तब अगत्या ( मजबूरी में । यह अरुचि पूर्वक रामज्वरको शान्त ( शमन ) करने के लिये रोगीकी तरह कड़वी औषधिको भी ग्रहण करता है ( उत्साह और चिसे नहीं), जिससे थोड़ा आस्रव और बंध भी उसको होता है अर्थात् संवर और आम्रव दीनों होते हैं, परन्तु मुख्य व गोणका भेद रहता है ऐसा समझना चाहिये । तथा उपादेशबुद्धि वीतरागतामें ही रहती है, रागमे हेयबुद्धि रहती है । ( ३ ) अशानी मिथ्यादृष्टिके दयाभाय दूसरे तरहका रहता है, उसको प्रचुर राग रहता है, वैराग्य anani १. णाणं याणिमित्तं केवलणणं च णत्तिा सुदणाणं । यं केवलणाणं गाणं च मयि कालणो ॥गा ० ४१॥ अर्थ-बान पके अधीन नहीं है, सब केबलशान मी भुतान या यके अधीन महीं है। केवलान स्वई यस्प है अ पत्र में पापना व अहानपना दो धर्म महीं हैं। फलसः सता रवाधीन मानसे ही सिद हो जाती है फिर शंका क्यों करना ?
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy