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________________ 定 पुरुषार्थसिद्ध युपा नहीं सकता। ऐसी स्थिति में वह स दुःखी होकर संसार परिभ्रमण करता है । व्रत या विरतका अर्थ होता है त्याग करना या विरक्त होना । उसमें भी पहिले किसका त्याग करना और किससे विरक्त होना यह विचारणीय है। इसका समाधान यह है कि सबसे पहिले तो मिध्यात्वका त्याग करना है और उसके बाद संसार शरीर भोगोंसे विरक्त होना है अर्थात् उनसे अरुचि करना है । फिर आगे चलकर जिनसे अर्शच होती है, उनका ( संसार शरीर भोगोंका ) यथाशक्ति त्याम करना है अर्थात् सम्बन्ध विच्छेद करना है। इस क्रमसे संसारसे छूटकर मोक्ष जाना है अर्थात् एकाकी बनना है किम्बहुना त्याग तपस्याका बड़ा महत्त्व है। जो मनुष्य मुमुक्षु अपना समय ( जीवन ) अज्ञान और प्रमादमें रहकर व्यर्थ हो खो देता है, वह न आगे ( परभव ) की सोचता है न वर्तमान ( इसभव ) की सोचता है किन्तु मदांध होकर बनगजकी तरह अनर्थ ही करता रहता है, ऐसे नराधमका उद्धार कभी नहीं हो सकता | अतएव जीवको जब विवेक या भेदज्ञान प्रकट होता है तब वह संभलता है और पुरुषार्थी अपनी अशुद्ध परम संयोगो अवस्था से पृथक होने का उपाय भी करता है। वह बाह्य उपाय तो त्याग तपस्याका करता है और अन्तरंग उपाय रागादिकषायोंको छोड़नेका या मन्द करनेका करता है | इस तरह अन्तरंग और बहिरंग दोनों तरहका पर संग ( परिग्रह ) छोड़कर अकेला बनता है उसका क्रम यह है कि व्रत पहिले भोगोपभोग में निरर्गल प्रवृत्तिको छोड़ता है या उसकी सीमा ( मर्यादा ) करता है पश्चात् शक्तिको देखकर नियमरूपसे उसमें भी कमती करता है व इच्छाओं को रोकता है | ऐसा अभ्यास करते-करते अन्तमें सबसे जुदा 'एकत्व विभक्तरूप' वह हो जाता है अर्थात् लक्ष्यसिद्धि कर लेता है इत्यादि । शंका समाधान यहाँ पर यह शंका ( प्रश्न होती है कि भोगोपभोगत्याग शिक्षाव्रत में, देशव्रत ( गुणव्रत ) जैसी गंध आती है ( प्रतिदिन मर्यादा करनेसे ) तब इस भोगोपभोगत्याग शिक्षाव्रतको जुदा नहीं बताना चाहिये ? इसका समाधान इस प्रकार है कि 'सामान्यतभूतस्यापि विशेषस्य प्रयोजनवशात् पृथगुपादानं क्रियते' इस न्यायके अनुसार भोगोपभोगत्याग शिक्षाव्रतका - गुणवतसे जो पृथक् निर्देश किया गया है, उसका खास प्रयोजन हैं जो बड़ा महत्त्वका है और वह यह कि व्रती को ऐसा करना ही चाहिये तभी गुष्णव्रतोंकी सार्थकता सिद्ध होती है अर्थात् वैसा करना अनिवार्य है याने यह विशेषता जाहिर होती है अस्तु || १६६ || year और शिक्षा में आचार्योंका मतभेद ( नक्शा ) आचार्य नाम १ -- श्री समन्तभद्राचार्य ! गुणवत १ - दिग्वत २- अनर्थत्यागत ३- भोगोपभोग परिमाणवत शिक्षाव्रत १- देशावकाशिक २- सामायिक ३- प्रोषधोपवास ४ – वैयावृत्य+ *
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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