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सम्यचारित्र . हो सकता है अर्थात् बिकारी भावोंके हटाए बिना मुक्ति नहीं हो सकती यह नियम है। ऐसी स्थिति में भावोंका हटाना हिसा नहीं मानी जा सकती याने उसको बध नहीं कहा जा सकता क्योंकि स्वभावभावके आलम्बन लेनेसे विभावभाव ( बिकारीभाव ) कभी रह नहीं सकते-हट जाते हैं। जैसे कि उजेलाके होने पर अन्धकार स्वयं मिट जाता है, सफेदीके आनेपर मैल स्वयं नष्ट हो जाता है यह प्राकृतिक नियम है इत्यादि।
उक्त लोकका सही अर्थ न समझकर 'अजैर्यष्टव्यम्' की तरह मिथ्या अर्थ करके याने बकरोंको बलि द्वारा पूजन हवन करना चाहिये, ऐसा मिथ्या प्रचार कर दिया गया है जो बड़ा धोखा व अन्याय जीवोंके साथ किया गया है। किम्बहुना ।
आचार्य कहते हैं जो जीव नयचक्रकी विशेषता याने उसके प्रयोग करने की विधि ( संगति समन्वय ) आदिको नहीं जानते---उसके विशारद नहीं है वे हानि उठाते हैं अर्थात् वे स्वयं आत्म.' कल्याण नहीं कर सकते व संसारमें भटकते रहते हैं। और दूसरोंको भी संसारसागरसे नहीं. उबार सकते हैं।
( अतएव मयचक्रका जानना अनिवार्य है। अत्यन्तनिशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम् । खण्डयति धार्यमाणं मूर्धान झटिति दुर्विदग्धानाम् ।।५९।।
पद्य
जिमवरका नयभेद चकसम घुमा सक्त है बे गुरुजन । ज्ञानी मानी और अनुभवी विना स्वार्थ करने साधन ॥ बिना ज्ञान के अशामीजन करें कंदानित चकचलन । सेजधार अरु कठिन पकर वह सिर से अरु करे पत्तन ॥५॥
अथवा
तेजधार अ6 दुर्धर भी है जिनमतका नयचा अपार । बिना ज्ञान कर देता है संचालकका मस्तक शार ।। अतः समझ कर उसे चलाते-निज परको रक्षा करते ।
सन्गुरु येसे पारण महाई, चरण में मस्तकं धरते ।।५९|| अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि जिनवरस्य नयन अत्यन्त निशितधारं दुरासदं अस्ति ] जिनेन्द्रदेवका याने जैन शासनका मयसमुदाय ( नयप्रकरण या नयभेदप्रभेद ) अत्यन्त पेने तेज घारबाले दुर्धर सुदर्शन चक्र के समान दुर्धर हैं अर्थात उस नय समुदायका समझना व प्रयोग करना बड़ा कठिन है, स्थाद्वादो अनेकान्तविशारद सद्गुरु ही उसको अमल में ला सकता है व लाभ उठा सकता है । अतएव [ दुर्विदग्धानां धार्थमार्ण भूधान प्रारति संदमति ] अज्ञानी मूर्ख जन यदि उस नव