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________________ १७४ पुरुषार्थसिद्धपात्र चेतन और शरीरादि जड़, इनकी एकता ता अभेद क्या कभी त्रिकाल में हो सकता है या कोई दूसरा शक्तिधारी भी इनको एक कर सकता है ? हरगिज नहीं। फिर भूलता क्यों है. यह आश्चर्य है । यह भूल या गलती तभी मिटती है, जब भेद ज्ञान जीव को हो, और निश्चय व्यवहार का ज्ञाता हो । बह भेद ज्ञानी, निश्चयनयके द्वारा सब पदार्थों को अपनेसे तथा सबको सबसे कालिक भिन्न मानेगा जानेगा और व्यवहारनय से सबका अपनेसे ब परस्पर सबका संयोग सम्बन्ध मानेगा व उस अपेक्षा कचित् अभेद भी मानेगा इस प्रकार तत्त्वनिर्णय और वैसा ही वाव या आचरण भी करेगा, तब उसका उद्धार होगा, अन्यथा ( बिना यथार्थ जाने नहीं होगा। उस दशाका प्रदर्शन या नमूना निम्न प्रकारका होता है । येषां भूपशमंगसंगतरजाः स्थानं शिलायास्तल आग्या भाकरिता मही सुविहितं गई ह द्वीपिनाम् । आत्मामाचिकल्पातमतया युध्यनमानन्धयः से नो ज्ञामधना मनांसि पुस्तां मुनिस्पृहा निस्पृहाः ॥२५॥ ( आत्मानुशासन } भावार्थ-मोक्षमार्गी साधुके अन्तरंग बाहिरंग परिग्रहका त्याग, ( निनन्थगुणभद्राचार्यफ्ना) सम्यग्दर्शन, निर्विकल्पता, ये तान चाजें अवश्य होना चाहिये, ये पहिचानके चिह्न हैं या नमूना है । इसीका विवरण लोकमें जुदा २ बतलाया गया है। __अर्थ-जिलको हमेशा यह वृत्ति चर्या ) रहती है कि हमेशा जंगलमें रहते हैं, शरीरमें मैल लगा रहता है जा उनका भूषण है। पत्थर या चट्टानें बैठने को है वही आसन है। कंकरीली धरती सोने को है वही सेज्या है। चीते आदिको गुफाओंमें रहते हैं बहो घर है। हमारा ब पराया विकल्प नहीं---निर्विकल्प या निश्चिन्त रहते हैं। अज्ञानांधकार ( मिथ्यात्व से रहित हैं....सम्यगदष्टि हैं । ज्ञान ही जिनके धन हैं मुक्ति स्त्रीकी जिनके लगन ( दृष्टि ) है, ऐसो अलौकिक मुद्राधारी सद्गुरु मोक्षमार्गी होते हैं उनको नमस्कार करते हैं वे आदरणीय है । इनमें सबसे पहिले आवश्यकता किसकी है ? इसका उत्तर--तत्त्वज्ञानको है अर्थात् पहिले पदार्थ व उसके निश्चय व्यवहार स्वरूपको जानना ब समझना जरूरी है, ( सम्यग्ज्ञानका होना अनिवार्य है)। पश्चात् सम्यक्चारित्रका होना जरूरी है। किन्तु बिना जाने समझे चारित्रको प्राप्त करना असम्भव है। जबतक सम्यक् ज्ञान न हो, तबतक पया छोड़ेगा और क्या ग्रहण करेगा? यह विचारणीय है। करनेपर मुख्य ध्यान देना गलती है क्योंकि जबतक भीतर कषायोंको विकार जानकर नहीं छोड़ा जाय, तथा अज्ञान ( मिथ्यात्व ) को विकार जानकार न हटाया जाय, तबतक ऊपरी त्यागसे क्या होता है ? कुछ नहीं, । पेश्तर हिसाको ब अहिमाको ( चारित्र अचारित्रको समझो तब उसके लिये बैसा उद्यम ( उपाय करो, साधन मिलाओ तब लाभ होगा, अक्रम कार्य करना ठीक नहीं होता। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानको तो प्राप्त न करे और सम्यक् चारित्र प्राप्त करने में लग जाय, ऐसा क्रम
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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