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________________ सम्यकमारिक स्वरूप महाभारत जैसे वेदांग ( अवयवरूप) अन्थमें बतलाया गया है, जिससे पूर्वापर विरोध आता है और इसीलिए वह असत्य सिद्ध होता है। श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा वावधार्यताम् । आत्मनः प्रतियलानि परेपो न पाइरेट: - महामारत अर्थ-धर्मका निचोड़ या रहस्यभूत स्वरूप यह है कि जो पदार्थ या आचरण, अपने खुदके लिए रुचिकर या पसन्द न हो अथवा बुरा या अनिष्ट मालूम पड़े ( अपने अनुभवमें आवे ) वह आचरण या वत्तवि दूसरोंके साथ भी नहीं करना चाहिए। उसका उपयोग न अपने लिए किया जाय न परके लिए किया जाय) बस यही 'धर्म' का सच्चा स्वरूप व रहस्य है { सार है ) और कुछ नहीं। इसका प्रयोजन यह है कि जिस कार्यके करने से अपनी आत्मामें दुःख व संक्लेशता हो तथा दूसरे जीवोंकी आत्मामें भी दुःख ब संक्लेशता हो, वह कभी 'धर्म नहीं हो सकता किन्तु वह उल्टा 'अधर्म' हो सकता है। तब हिंसा करना धर्म कैसा? जब अपने साथ कोई मारपीट करता है, गालो बगैरह देता है तब अपनेको वह पसन्द नहीं आता व दुःख होता है, सुई चुभाता है तब दुःख होता है। ऐसी स्थितिमें दुसरे जोवोंको मार डालने में या उन्हें सताने में उन्हें भी दुःख भय अवश्य होगा-प्राण सबको प्यारे हैं, फिर धर्म हुआ या अधर्म ? इसका ठण्डे दिलसे विचार करना चाहिये इत्यादि । इसी तरह अन्यत्र कहा गया है कि 'आरमचन् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः, { पण्डित या विवेकी धर्मात्मा ) अर्थात् जिसको 'समदृष्टि' पर द्रव्यमें-पर पदार्थमें नीच-ऊँचको या छोटे-बड़े की भावना { विकल्प या रागद्वेष ) नहीं रहती वही धर्मात्मा है, सबके साथ एक-सा बर्ताव करनेवाला श्रेष्ठजन है। इसके विपरीत चलने व करनेवाला धर्मात्मा नहीं है यह अधर्मात्मा ( पापिष्ट ) है । जो करता है यह पाता है, इस न्यायसे वह पापो नरक-निगोदको अवश्य जायगा---कोई दूसरा हाथ न लगायगा, न बचा सकेगा, यह सत्यार्थ है। अतएव मिथ्या न सोचो, न करो, इसी में भलाई है। वह उपदेश कभी सत्य नहीं है जो गुमराह कर देवे--सुमार्गको भुला देवे तथा वह उपदेशक भो असत्य वक्ता है जो स्वयं नरक जावे और दूसरों को । शिष्योंको ) नरक पहुंचावे व उल्टी परम्परा चला देवे इत्यादि समझना चाहिए। शिक्षा दुधजन पक्षपात सज देखो सांचा धर्म कौन है अगमें ? अलख अहिंसक निर्विकार जो साँचा धम यही है जग में । पद पापसे रहित होयकर मामस्वभाव लीन होय उरमें ।। वह ही अजर अमर अधिमाशी-पदमें धरता है क्षणभरमें । सबको सज भज एक इसीको तारनसरन शमि है इसमें || 1 || स्यादि अन्यमतावलम्बी एकान्तियोंको नयोंका यथार्थज्ञान और उनके संयोजनकी विधि आदिका
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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