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________________ २६० पुरुषार्थसिद्ध पाय नातिव्याप्तिरच तयोः प्रमत्तयोगककारणविरोधात् । अपि कर्मानुग्रहणे नीरागाणामविद्यमानत्वाम् ॥ १०५ ॥ पा अविष्यामि दूषण नहिं होता कर्मग्रहण करने में । विना प्रमाद होत है वह तो वीतरागता धरनेमें ॥ ग्रहण विसर्जन किया जाता है जहाँ कपयोग घरते । अन्य जगह जो क्रिया होत है वह स्वभावसे ही वरते ।। १०५ ।। } अन्वय अर्थ आचार्य कहते हैं कि [ अपि नीरागाणां कर्मानुग्रह तयोः संव्यासः न ] और atarfrat (दिपक्षियों के जो प्रति समय कर्मोंका ( अदत्त ) ग्रहण होता है उससे हिंसा के लक्षण में अथवा चोरी और प्रमादरूप हिंसामें या एकता में कोई अतिव्याप्ति नामका दूषण नहीं आता, कारण कि [ प्रयोग ककारणविरोधात् ] विरागियोंके जो कर्मग्रहण होता है वहाँ प्रमादयोग नामक मुख्य कारण मौजूद नहीं रहता, अर्थात् वह नष्ट हो जाता है ( सम्पूर्ण मोहका अभाव हो जाने से ) अतः [ स्तेयस्य न ] चोरोके न होनेसे, वह । कर्मग्रहण ) स्वभावतः ( अपने आप खाली योगके निमित्तसे बिना कषायके ) होता रहता है, जो वस्तु स्वभाव है, वह arrant क्रिया नहीं है यह तात्पर्य है । स्थिति जीव, पकवान सहित संसारी) नहीं हैं किन्तु वे विपक्षरूप हैं। अतएव अतिव्याप्ति दूषण नहीं हो सकता। ऐसा समझना ।। १०५ ॥ } भावार्थ- सर्वत्र प्रमाद और हिंसाको एकता ( व्याप्ति मिलाई जाती है जो सत्य सिद्ध होती है, उसमें कोई दूषण नहीं आता । वीतरागी साधु या देव ( अर्हन्त कषायसे सर्वथा रहित हैं अर्थात् प्रमादवाले नहीं हैं अतएव कर्मोंका ग्रहण करने मात्र ( प्रति समय सातावेदनीयका सिर्फ प्रकृति प्रदेशबन्ध होता है ) से ये हिंसक नहीं होते अर्थात् उन्हें हिंसाका दोष या चोरीका दोष नहीं लगता, कारणकि कर्मरूप पुद्गल किसके अधीन नहीं हैं अर्थात् उनका कोई खास स्वामी नहीं है, वे सर्वत्र ठसाठस भरे हुए हैं व स्वतन्त्र हैं। अतएव उमम दत्त या अदत्त ( चोरी ) का विकल्प ही नहीं होता। इसके सिवाय उनका आना जाना प्रसाद ( कषाय सहितयोगपरिस्पंदन ) से नहीं होता तब हिंसा काहेको ? वह अहिंसारूप है ऐसा समाधान होता है । अस्तु । are niraufen योगप्रवृत्तिको या तीव्रकषायको प्रमाद कहते हैं यह लक्षण है किम्बहुना - १. अभाव होनेसे । २. रानियोंके, अलक्ष्यरूपवाले विसवृशजनोंके याने विपक्षभूतक इस इलोक में 'विरोधात्' पदके स्थान में 'विशेषात्' होता तो क्लिष्ट कल्पना न करना पड़ती सरल होता । ३. विभावभाव | ४. विरागियों त्यागियों के ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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