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________________ ६४ पुरुषार्थासक्युपाय उच्च व आदरणीय है। सद्गुरुका लक्षण सर्वार्थसिद्धिकी भूमिका में 'कश्चिद् भव्यः प्रस्यासननिष्ठः' इत्यादि पदबाक्य द्वारा अथवा "विषयाशावशातीतः निशरम्भोऽपरिग्रहः' इस रत्नकरण्डके १०३ श्लोक द्वारा सुन्दरतासे बतलाया है वह समझ लेना चाहिये । प्रारम्भ दशामें या साधक अवस्थामें सद्गुरु ही सहायक या निमित्तकारण हुआ करते हैं अन्य नहीं, अनादिसे भूले-भटके प्राणियोंको दे ही पार लगाते हैं अतः वे ही परमोपकारी है, ऐसी दृढ़ श्रद्धा रखना चाहिये, तभी भक्त या शिष्य सम्यग्दृष्टि हो सकते हैं । ९० ॥ नोट-चरणानुयोगकी पद्धति के अनुसार ( व्यवहारनयसे ) बाह्य पाँच पापों अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रहके त्याग करने को विधि खासकर संशी पंचेन्द्रिय कर्मभूमियों मनुष्यों के लिए ही है, कारण कि वे ही सब पापोंका प्रयोग या प्रवृत्ति अभिप्रायपूर्वक करते हैं, अन्य जीव नहीं कर सकते, कारणकि सब साधन सम्पन्न कर्मभूमिया मनुष्य ही होते हैं। बाहा-पदार्थ सब पापबन्धके निमित्तकारण हैं अतएव उनका भी त्याग कराया जाता है ऐसा समझना चाहिये। ये सब जीवको संयोगीपर्याय और अशुद्धतामें हुआ करते हैं । ९० ॥ असत्यपापप्रकरणमें ( सत्याणुव्रतका स्वरूप) अब आचार्य दूसरे असत्य पापका स्वरूप व भेद बतलाते हैं। यदिदं प्रमादयोगादसदभिधानं विधीयते किमपि । तदनृतमपि विज्ञेयं तन्मेदाः सन्ति चत्वारः ॥९॥ taked प्रमाद सहित ओवचन निकलता, वह असस्प कहलाता है। उसके पार भेद होते हैं, यह मागम बतलाता है। कुशल कार्यके करमेमें, उत्साह नहीं जो होता है। घही 'प्रमाद' कहाला भाई, सोध कषाय जनाता है १५१| अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ प्रमादयोगात् यत् किमपि असदभिधान विधीयते ] प्रमादके साथ (विवेक रहित असावधान अवस्थामें ) जो कुछ भी अन्यथा कथन किया जाता है या होता है [ तन् अनृतं विज्ञेयं ] उस सबको असत्य या झूठ कहा जाता है, उसे असत्य पाप समझना चाहिये । [ अपि तभेदाः सस्कारः सन्ति ] और उस असत्यके वक्ष्यमाण चार भेद होते हैं या माने जाते हैं ।।९१६ १. कुशलेयु अनादरः, हिसके कार्यो में ( धर्म करने में ) उत्साह व आदर नहीं होना । अपचा तीव्रमवायरूप भावोंका होना प्रमाद का २. बुरा अप्रशंसनीय या निन्यवचन । असत्य-मषा-झूठ। ---असदभिधानमनूतम्' ( प्रमत्तयोगात् ) ।।१४।। स० सू० अ०७
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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