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________________ ३७५ पुरुषार्थसिवएपाय पद्य माओं में मिश्रण का करना, चोर उपाय बताना है। चोरी की वस्तु खरीदना, राज्य विरुद्ध जु करना है। कमबद मापों को भी रखना. अतिचार कहलाता है। खोरी के त्यागी पुरुषों को, ये सब कभी न करना है ॥ १८५|| अम्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [प्रतिरूपव्यवहारः] अधिक मूल्यको वस्तुमें कम मूल्यको वस्तुको मिला देना [ स्तेनानियोगः सदाहतादानम् चोरी करनेका उपाय ( तरकीब ) बताना तथा चोरोका द्रव्य खरीदना ( कम मूल्यमें ) और [ राजविरोधातिक्रमहामाधिकमानकर च ] राज्यके कानून { नियम ) के विरुद्ध कार्य करना ( चलना या वर्ताव करना ) एवं नापने-तोलने के मापों (बॉटों ) को कम-बढ़ रखना, ये पाँच अचौर्याणुव्रतके अतिचार हैं। इनका त्याग अचीर्माणुवतीको अवश्य करना चाहिये ।।१८५।।। भावार्थ-अचार्यव्रतको पालनेवालेके लोभकषायका अभाव या मन्दता होना अनिवार्य है बिना उसके वह व्रत निरतिचार पल नहीं सकता अथवा धारण हो नहीं किया जा सकता। ऐसी स्थितिमें मनुष्य श्रद्धा और रुचिपूर्वक पूर्ण अपात रोक स्याग करते हैं । ( विना दिये किसी वस्तुका ग्रहण नहीं करते ) वे उक्त पाँच प्रकारके अतिचार (धब्बा या दाँका ) अचीhणुवसमें नहीं लगाते अर्थात् उसको अतिचार रहित निर्दोष पालते हैं। कारण कि पाँचवें गुणस्थानमें प्रत्याख्यान कषायका उदय होनेसे सकलसंयम तो होता नहीं है किन्तु अप्रत्याख्यान कषायका उदय न होने से देश संयम हो जाता है, फिर भी सर्वथा ( पूर्ण ) लोभकषायका अभाव नहीं हो जाता प्रत्याख्यान व संज्वलनका लोभ शेष रहता हो है तथा नोकषायों में से पांच राम रहते ही हैं.-तब अबुद्धिपूर्वक चौर्यकमका त्याग न हो सकनेके कारण तजन्य दोष लगता है, लेकिन बुद्धिपूर्वक उसको उक्त अतिचार नहीं लगाना चाहिये ऐसा उपदेश है। यदि कहीं इसके विरुद्ध कोई व्रती गुप्तरूपसे या दूसरी तरहसे ( मार्फत-द्वारा-परम्परया ) अतिचारा लगाता है तो वह भी वर्जनीय है क्योंकि उसका फल स्वयं करानेवालेको हो मिलता है । जैसेकि स्वयं चोरो नहीं करनेवाला यदि चोरीका उपाय किन्हीं दूसरोंको बतलाता है तो उसका उसमें कुछ स्वार्थ या हिस्सा समझना चाहिये। अन्यथा उससे उसका क्या मतलब? कुछ भी नहीं। नि:स्वार्थी कभी नहीं बतलायमा। अतः यह कारित दोषका भागो होता है-लोभका अस्तित्व उसके समझना चाहिये । इसी तरह लोभवश असलो चाजमें नकली मिलाकर चलाना, तथा चोरीका द्रव्य लोभवश कम कीमत में लेना, चुंगी या टैक्स -बिना चुकाये माल लाना बेंचना (यह राज्यका कानुन लोड़ना है । लेने व देनेके माप-तौलको कम-बड़ रखना अर्थात् लेनेके लिए बड़ा नाप-तौल रखना और देने के लिए कमतो नाप-तौल रखना इत्यादि, यह सब मूल (प्रत्यक्ष ) चोरी नहीं है तो परोक्ष अवश्य है अतः उसका भी त्याग कराया जाता है, किम्बहुना त-संयम या चारित्रको निरतिचार होना चाहिये तभी निर्जरा होती है अर्थात् लक्ष्य पूरा होता है यह' सारांश है। उक्त कार्य लाभ मायाचार आदिके १. उक्त यस्लेनप्रयोगतदाहादतानविरुद्ध राजातिकम हीनाविकमानोपमानप्रतिरूपकव्यवहाराः ॥२७॥ -० सू० अध्याय A
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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