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________________ ৪াখিব संयोग होना, वियोग होना, यह सब वस्तुका स्वभाव है और उसका होना नियत व निश्चित है जो अन्यथा कभी नहीं हो सकता । इसको स्वभाव इस लिए कहा जाता है कि यह किसी के निमित्त से नहीं होता अपितु जब जो होनेका होता है तब वह निराबाध हो ही जाता है और उसके पीछे (बदौलत ) निमित्तादि सब एकत्रित हो जाते है । स्वाभाविक परिणमनको कोई बदल नहीं सकता वह अवृत्रिम होता है किम्बहुना । अनादि कर्मबन्धमें कारण, अनादि कर्मबन्ध ही है, उससे भिन्न कोई स्वतन्त्रे कारण न है न हो सकता है, अन्यथा निमित्त में उपादेयता व बलात्कारता सिद्ध हो जायगी जो अनिष्ट है वह असम्भव है, युक्ति व आगमके प्रतिकूल है इत्यादि । बन्धादिका करनेवाला व फल भोगनेवाला जीव द्रव्य होता है यह कथन अपेक्षासे सम्बन्ध रखता है धाने आपेक्षिक ( कथञ्चित् ) है। यथा-...- ___कर्मबन्धके होने में विशेषता जन जीवके संसारदशामें देवगुमशास्त्रके प्रति श्रद्धाभक्ति स्तुति पूजाप्रभावना आदिके शुभर भाव होते हैं, उन भावोंके निमित्तसे पद्गलद्रव्य पुण्यकर्मरूप स्वयं परिणम जाता है तथा जीवके साथ बंध जाता है। और उसमें स्थिति व अनुभाग ( फल देनेको शक्ति ) पड़ जाता है। इतना ही नहीं जब वह पुण्यकर्म उदयमें आता है तब सुखदुःखको सामग्री उपस्थित होती है एवं मोह या रागद्वेष के अनुसार जीव उस समय सुख व दुःखका अनुभव करता है अर्थात् सुखो-दुःखी होता है। तथा फलको भोगते समय जो जीवके परिणाम हर्षविषादरूप होते हैं-(संक्लेशरूप या विशुद्धता रूप होते हैं ) उनके निमित्तसे पुनः नवीन कर्मोंका बंध होता है इत्यादि बंधकी परम्परा (श्रृंखला) चाल रहती है। तात्पर्य यह कि जैसे शुभ या अशुभभाव संयोगी पर्याय में होते हैं वैसा ही पुण्यकर्म या पापकर्मका बंध प्रतिसमय जीवको होता है। इसी तरह-... जब जीवके विषयकषायको पोषण करनेके या सेवन करनेके या किसीको मारने सताने आदि रूप अशुभभाव होते हैं तब नवीन पाय कर्मोका बंध होता है एवं उनमें स्थिति अनुभाग पड़ता है। यदि उस समय तीनकषाय' । संक्लेशता रूप परिणाम ) हो तो उन बंधे हुए पापकों में स्थिति व अनुभाग ( फलदानशक्ति ) अधिक पड़ेगा और मंदकषाय हो तो स्थिति अनुभाग १. आवहारमयकी अपेक्षा जीक द्रव्यका स्वरूप । तिक्काले चपाणा इंदियबलमाऊ आणपापो य । ववहारा सो जीबी णिच्छयणयदो टू चेवणा जस्स ॥३॥ पागलकम्मादीणं कता बहारदो दू गिन्छयदो । चेवणकम्माणादा सुद्धणयां सुद्धभावाण ।।८॥--वृहतद्रव्यसंग्रह। २. प्रशस्तरागरूप। ३. अप्रशस्तराम । ४. विषयानुराग, विषय सेवनकी अधिक लालासाका होना या अतिआसक्ति होना--प्रचुर राग।। १५. धर्मानुराग या विषयादिस अरुचि या उदासीनताका होमा ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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