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________________ - पुरुषार्थसिद्धयुपाय अपेक्षासे बंधको प्राप्त हो जायेंगे, यह दोष आवेगा।' कषाय भावोंके होनेपर बाहिर हिंसा ( घात) न हो तो भी हिंसा पाप लग आता है, यह विशेषता है, अस्तु । हिंसाके मुख्य ४ भेद (१) संकल्पी हिंसा ( २ ) आरम्भी हिंसा ( ३ ) उद्योगी हिंसा ( ४ ) विरोधी हिंसा । इन सबमें आत्माका स्वभावधात होता है, अत: हिंसा रूप हैं । १. संकल्पी हिंसा, उसको कहते हैं, जिसमें सिर्फ हिंसा करने या मारनेका इरादा किया जाता है। अर्थात् अशुद्ध या विकारमय परिणाम करना, हिंसा करना माना जाता है। यह हिंसा सबमें मुख्य है। कारण कि परिणामोको ( चित्त या उपयोगको) रोकना ही बड़ा कठिन है। अतएवं हिंसाका प्रारंभ वहींसे होता है, ऐसा समझना चाहिये । परमपूज्य समन्तभद्राचार्यके शब्दोंमें उसको हो 'भावहिंसा' कहते हैं। स्थूलहिता व सूक्ष्महिंसा अस और स्थावर जीवोंको 'द्रव्य हिंसा के आधार पर उक्त दो भेद किये गये हैं ! अर्थात् द्वीन्द्रियादि स जीवोंका घात करना स्थलहिंसा' कहलाती है और एकेन्द्री स्थावर जीवोंका घात करना 'सूक्ष्म हिंसा' कहलाती है। इस लौतिक पप भो चेन्टी और मनुष्य आदि' मुख्य लिये जाते हैं, इसोसे राजर्दड व पंचदंड आदिका विधान माना जाता व किया जाता है । इसमें खास परिणामोंकी अपेक्षा नहीं रखी जाती, जो जैन धर्ममें मुख्य है अस्तु । तथापि पद व योग्यताके अनुसार स्थावर व स जीवोंका रक्षण क्रमसे किया जाता है जो करना चाहिये। पाप हनेशा नुकसान देता है। २. आरम्भी हिंसा, उसको कहते हैं जो गमनागमनादि शारीरिक क्रियाओंके करने में जीवघात होता है। नहाना, कपड़ा धोना, रसोई बनाना,झारना, पानी भरना, आग जलाना, कूटना, पीसना, खाना-पीना, ( आहार नीहार करना ) आदि सब आरम्भ कहलाता है। अर्थात् सावधयोग का नाम आरम्भ है, जिसमें पापास्रव होता है अस्तु। ३. उद्योगी हिंसा, उसको कहते हैं, जो व्यापार अदिके करनेसे हिंसा होती है व्यापार आदि सभी काम गृहस्थको करना हो पड़ते हैं उनके बिना चलता (निर्वाह ) नहीं है। उसमें हिंसाका होना अवश्यंभावी है। अतः उसे उद्योगी हिंसा कहते हैं। परन्तु इसमें हिंसा करनेका संकल्प नहीं रहता, अस्तु । ४. विरोधी हिंसा, उसको कहते हैं, जो लड़ाई-झगड़ेके समयमें या प्रतिरोधके समयमें १. उच्चालिदमि पादे इज्जासमिदस्स णिगमट्टाणे । आवादेज कुलिंगो । मरदुद जियदु व जीवो ण हि वस तणिमित्तो बंधो सुहमोवि देसिदो समये । परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्यपापयोः प्राज्ञाः । इत्यादि क्षेपक गाया अष्टपाहड़।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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