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________________ २१४ দ্বিমুখ - अन्वय अर्थ- आचार्य कहते हैं कि [ यद्वात् सिखनाल्यां ससायसि विनिहिसे तिला हिंस्यन्ते ] जिस प्रकार तिलीसे भरी हुई पुगरिया ( नाली में लपे हुए लोहे के सरियाको डालनेसे तिली जल जाती या नष्ट हो जाती है [ सवत् मैथुन योनौ बहवो जींचाः हिस्यन्ते ] उसी तरह मैथुन करनेसे योनिमें रहनेवाले बहुत से सम्मूच्र्छन जीव मर जाते हैं, जिससे द्रव्यहिसारूप पाप लगता है अतः वह छोड़ना चाहिये ॥ १०८ ॥ भावार्थ---कुशील या मैथुन वा अब्रह्म इन तीनोंका अर्थ एक ही होता है ! परन्तु कुशील नाम क्यों पड़ा है ? यह विचारणीय है। शोलका अर्थ स्वभाव है अर्थात् निर्विकार ( सहज ) आत्माका परिणाम है । तदनुसार आत्मामें विकारका होना (विभावभाव उत्पन्न होना ) कुशील ही है अर्थात् स्वभावसे रहित या विचलित होना है। जिसकी प्रतिक्रिया मैथुनादिके रूपमें होती तो नही है जो सब कुशलम् शामिल हैं। किन्तु लोकाचार या लोकके न्यायमें 'स्वस्त्री' सेवनको कुशोल नहीं कहा जाता, 'परस्त्री' सेवनको ही कुशील कहा जाता है। अतएव स्वस्त्रीके सेवनमें दंड नहीं मिलता और परस्त्रीके सेवनमें दंड मिलता है। परन्तु परलोकमें ( आगमके न्यायसे) वह 'अब्रह्मा' पाप है अर्थात् ब्रह्म जो आत्मा, उसके स्वभाव ( रागरहित से विचलित होना है, इसलिये उसकी सजा सभीको मिलती है यह तात्पर्य है । अथवा जीवहिंसा होनेसे सभी अपराधी समझे जाते हैं, क्योंकि मुख्यपाप हिंसा ही है। लोकका न्याय परलोकमें नहीं लगता, दोनों न्याय जुदे-जुदे हैं। मैथुनक्रिया ( कर्म के समय पुरुषके पुरुषवेदका व स्त्रोके स्त्रीवेदका तीच उदय रहता है अतएव दोनोंके कर्मबन्ध होता है व द्रव्याहिंसा भी होती है भावहिंसा तो होती ही है ऐसा समझना चाहिये ।। १०८ ॥ विशेष विचार-लोकमें कहा जाता है कि 'ब्रह्म' परब्रह्म परमात्मा ( ईश्वर से ही जगत् ( संसार की और गुणकर्म स्वभावसे चार जातियों ( वर्णों )की उत्पत्ति होती है, इत्यादि इसका खुलासा क्या है यह थोड़ा बताया जाता है । ब्रह्मशब्दका अर्थ या वाच्य 'आत्मा' है। सो वही आत्मा अपने गुणकर्म स्वभावसे-बहिः रात्मा (मिथ्यादष्टि), अन्तरात्मा ( सम्यग्दृष्टि ), परमात्मा ( सर्वशकेवली ) बन जाता है किन्तु यह कहना कि 'ब्रह्मसे ब्राह्मण ( जाति ) उत्पन्न होते हैं यह गलत है, क्योंकि शरीर या कुलजाति वंश सब पौद्गलिक है-पगलकी रचना है, जो रजवोर्यादिकसे होती है | आत्मा उससे भिन्न है और नित्य अजन्मा है, अतः उसे कोई उत्पन्न नहीं कर सकता इत्यादि । फलतः गलसधारणा निकाल देना चाहिये। यथार्थ बात यह है कि जो 'ब्रह्म' अर्थात् आत्माको पहिचान लेवे या जान लेवे, वह ब्राह्मण ( भेदज्ञानी अन्तरात्मता सम्या दृष्टि) है। और जो ब्रह्मको यथार्थ न जान सके, वह अब्राह्मण ( मिथ्यादष्टि बहिरात्मा ) है। उसके पश्चात् जो रागादिक विकारीभावोंको भी, मिथ्यात्व ( अशान )के साथ निकाल देवे, उसको 'परमात्मा वीतरागी' कहते हैं। उसके-(१) सकलपरमात्मा (२) निकलपरमात्मा दो भेद होते हैं यथा अर्हन्त व सिद्ध जानना । लौकिक आतियो-सब कुल ( माता-पिता ) व कर्म ( व्यापारादि व स्वभाव ) पर निर्भर
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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