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________________ . বাবুমানাধিকাৰ स्वभावका घात होता ही रहता है, संवरपूर्वक निर्जरा नहीं होती, संसारका अन्त ( मोक्ष ) नहीं होता इत्यादि कमी बनी ही रहती है इत्यादि हानि व लाभ समझना । सारांश-~-धर्म दो तरहका होता है ( १ ) व्यवहारधर्म .२) निश्चयधर्म । अथवा एक पौकिकधर्म दूसरा पारलौकिकधर्म । व्यवहार शब्दके अनेक अर्थ है जैसे व्यवहारका अर्थ, लोकप्रवृत्ति या लोकयात्रा या चालचलन होता है तथा व्यवहारका अर्थ भेद करना भी होता है या सलूक करना होता है इत्यादि । परन्तु यहाँपर - धर्मका प्रकरण होनेसे सम्यधर्म व मिथ्याधर्मका: विचार किया जाना है। जो धर्म ( आत्म स्वभाव ) सम्यग्दर्शन पूर्वक हो उसको सम्यक्थमं समझना चाहिए। और जो धर्म मिथ्यादर्शनके साथ हो उसको मिथ्याधर्म समझना चाहिये । तदनुसार मिथयाधिक शुभ रागरूप या सुभप्रवृत्तिरूप ( सदाचाररूप-क्रियाकाण्डरूप ) धर्मके अत्यधिक होनेपर भी वह मिथ्याधर्म में ही गभित ( शामिल ) है, उससे उसको मोक्ष नहीं होता तथा सभ्यग्दृष्टिके वह शुभरागरूप धर्म कचित् या उपचारसे मोक्षका कारण माना जाता है कारण कि उसकी श्रद्धा उस शुभरामरूप धर्मके बारे ( विषय ) में सही है अर्थात् उसको वह मोक्षका कारण नहीं मानता, संसार ( बंध ) का ही कारण मानता है और मिथ्या दृष्टि वैसा नहीं मानता, यह वास भैद धर्म के विषयमें है । फलतः लोकव्यवहार ( लोकाचार ) को अपेक्षा शुभ किया या शुभ प्रवृत्ति कथंचित् उपादेय है। किन्तु परलोकको अपेक्षा वह उपादेय नहीं है, हेय है अर्थात् वह व्यवहारधर्म ( शुभ प्रवृत्तिरूप ) सर्वथा उपादेय नहीं है। निष्कर्ष यह कि मिथ्यात्वके साथ ( शुभरागरूप व्यवहारधर्म ) तथा सम्यक्त्वके साथ भी उक्त व्यवहारधर्म, उपादेय व कार्यकारी, किसी भी हालतमें नहीं है-उससे मोक्ष नहीं हो सकता। किन्तु मोक्ष सिर्फ निश्चयधर्म अर्थात् सम्यग्दर्शनपूर्वक बोतरागतारूप धर्मसे ही हो सकता है अन्यथा नहीं, यह तात्पर्य है। अर्थात् जबतक निश्चयधर्म प्राप्त नहीं होता या निश्चनयका उदय नहीं होता तबतक व्यवहारधर्म या भेद बतानेवाला मय उपादेय है और जब निश्चयधर्मको या निश्चयनयको प्राप्ति हो जाती है सब व्यवहारधर्म व व्यवहारनयको छोड़ दिया जाता है एवं भेदरूप या विकल्परूप या शुभरागरूप निश्चयनय (अशुद्धनिश्चय ) को भी निर्विकल्प दशा ( समाधि ) के समय छोड़ दिया जाता है, एक ज्ञासा-दृष्टामात्र स्वस्थ रह जाता है, किम्बहुना उपादेय व हितकारी निश्चय ही है | इस विषयमें एक-लौकिक दृष्टान्त दिया जाता है। एक समय दो आदमी किसी तीर्थयात्राको पैदल चले। उनमेंसे एक आदमीको कुछ कमती (धुंधला ) दिखता था और दूसरेको पूरा साफ साफ दिखता था। चलते २ दोनोंको भूख व प्यासकी इच्छा हुई और वेचैन होने लगे । थोड़ी देरके बाद एक गांव मिला, जहाँपर बहुतसे होटल की दोनों ठहर गये और खाने-पानेको होटलोंमें गये, जो आदमी कम दृष्टिवाला था वह पासवाले एक गंदले (छोटे) होटल में चला गया और वहाँपर उसने खराब बासा विकारी भोजन किया और मलीन विषैला पानी भी पिया । तथा दूसरे अच्छी दष्टिवाले ने अच्छे बड़े साफ होटलमें जाकर भोजन किया, पानी पिया। इसके बाद दोनों आगे चल पड़े। चलते-चलते बीच में वह कम दृष्टिवाला एकदम बीमार हो गया-तड़फड़ाने लगा, चिल्लाने लगा। दूसरा साफ दृष्टिवाला अक्का
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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