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________________ पृष्ठ १०६ ૨૦૭ १०८ १०९ १२० १२१ १२२ १२४ १२६ १२७ १२८ १३० १३४ १३८ १४६ १४७ पंकि ६ १५. १५ १४ टिप्पणी में १३२ १५ १३३ १४८ - १५१ १५३ १५५ १५६ १३ ११ १३ १८ १७ १३ २१ २१ * २ २५ १७ 4 ६ २४ ५ २० ४ * २३ ३ २७ २९ મ १७ " अशुद्ध पर्यायका सकता अशुद्ध मिटी शान्ते निःक्रांक्षित सम्यष्टि परता है। उपेक्षारूप है संयोगी होनेपर उनके रह X अविरल እ मिथ्यादृष्टि छ क्षण द्वीप हो जाता है afrater क्योंकि बायहार बाह्य में लिये प्रसादी कर्य शुद्धाशुद्धीपत्र ती तो यह शुश्रू पर्याय की सकती अरमा आत्मा मार्गी मार्ग जैसे विकल अंग होने पर भी मनुष्य या बंदर ही कहलाता है यह जोड़ लेना इस श्लोक परीक्षा करके तत्वज्ञान प्राप्त करनेको प्रधानता है यह सारांश हूँ । संयोग शुद्ध मिटाया सान्ते निःकांक्षित सम्यग्दृष्टि जुधरता है अपेक्षारूप है होते समय उसके निकाल देना उपयोग लगाना अर्थात् भनकी सहायता लेना हैं, जो दर्शन रूप हूँ । ४६१ गाथा नं० २९ जीवकांड गोम्मटसार मिध्यादृष्टि हैं लक्षण दीप हो जाना है स्वयं विकसित और व्यवहार अन्तरंग में x निकाल दो अधिक है प्रमादी कार्य जो व्रती तो तभी
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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