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________________ सातवाँ अध्याय सल्लेखना प्रकरण ( साधकश्रावकाचार) आचार्य साधक श्रावकका अन्तिम कर्तव्य बताते हैं। भूमिका निर्माण इयमेकैव समर्था धर्मस्वं मे भया समं नेतुम् । सततमिति भावनीया पश्चिमसेल्लेखना भक्त्या ॥१७॥ सतप्त भावना जिसकी रहती कम सल्लेखन हो मेरे । क्योंकि यह सामर्थ्य उस में साथ धर्मधन ले दौरे ।। इसीलिये कर्तव्य यही है, अन्तसमयमें वह करना । ठान प्रतिज्ञा भूमिशोधना निस्थ तयारी है करना ॥201|| अन्यय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [मे धर्मस्वं मया समं नेतुम् ] मेरे धर्मरूपी धनको मेरे साथ ले जाने के लिये [ हश्रमेव एका समर्था ] यही सल्लेम्यना ही एक समर्थ है-दूसरा कोई नहीं है। ॥ इति सततं भक्त्या पश्चिमसहलेखना भावनीया ] इस प्रकार साधक श्रावकको निरन्तर भक्ति सहित अन्तिम ( मारणान्तिको ) सल्लेखना करनेकी भावना या प्रतिज्ञा अवश्य करना चाहिये। यह भूमिका निर्माण है अर्थात् पेश्तरसे तयारी करना है ।।१७५।। भावार्थ-हर एक कार्यके लिये पेश्तरसे तयारी करना पड़ती है तभी वह अच्छी तरहसे सम्पन्न ( परिपूर्ण ) होता है यह नियम है। तब सल्लेखना जैसे महान गुरुतर परन्तु दुःस्साध्य कार्यको साधनेके लिये 'मुनिजन' १२ बारह वर्ष पहिलेसे अभ्यास करते हैं। उसी तरह श्रावकको पीरिक अवस्था में रहते हुए पेश्तरसे ही मारणान्तिकी (पश्चिम ) सल्लेखना करने की प्रतिज्ञा या भावना करते रहना चाहिये, क्योंकि भावना एक सरहका संस्कार है सो जब वह संस्कार दढ़ हो जाता है तब वह प्रतिज्ञा पूरी कराके हो दम लेता है अर्थात् सफल व शान्त होता है। यही भूमिकाशुद्धि या भूमिका तयार करना है इत्यादि । सल्लेखनामरण दो तरहका होता है। १. भावना करना प्रतिज्ञा लेना। २. सत् + लेखना - सल्लेखना । अनादिसे मौजूद कषाय और कामको पृथक करना या कमजोर करना, यह अन्तिम कर्तव्य श्रावक ( साधक का है करना चाहिये ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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