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स्वार्था
नहीं होता । परमकरणाभाव के पीछे वह अत्यन्त आईक्लेशपरिणामवाला हो जाता है, अपना कर्तव्य पूरा करना उसी कार्यको करने में मानता है, जिससे मोक्ष नहीं होता, संसारमें ही रहना पड़ता है, यह भाव है। यद्यपि है यह शुभराम तथापि हैव है, उपादेय नहीं हैं, ऐसा खुलासा समझना चाहिये। फलतः कथंचित् पदके अनुसार दोनों उपाय है । अज्ञानी परथाकी ही दया समझता है स्वदको नही समझता ।'
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( ४ ) आत्मा या ज्ञानमें मेचकता (अनेकरूपता) व अमेचकताका निर्णय :--
' दर्शनज्ञानचारिस्त्रिभिः परिणतत्वतः, एकोपि त्रिस्वभावत्वात् व्यवहारेण मेचकः ॥ १७ ॥ परमार्थेन व्यशास्त्र ज्योतिषैककः, सर्व भावान्तरध्वंसिस्वभावत्वादभेचकः || १८ || रामप्रसारकलश
अर्थ :--- पर्यायरूप नाम या व्यवहारको अपेक्षासे एक ही वस्तु अनेकरूप बनाम मेचकरूप मानी जाती है | ऐसा वस्तु अनेकरूप या अनेकान्तरूप स्वभाव है। स्वतः सिद्धति परिणमन ( व्यक्ति ) है सब सा माननेमें कोई विरोध या आश्चर्य नहीं है, ऐसा निश्चय या समाधान कर लेना चाहिये
६. निमित्त व उपादानमें भेद और उसका खुलासा दोनों स्वतंत्र पदार्थ हैं
( १ ) एक ही पदार्थ में निमित्तता व उपादानता दोनों धर्म पायें जाते हैं क्योंकि प्रत्येक वस्तु या पदार्थ अनेकान्तरूप है ( अनेक धवाला है। किन्तु एक दूसरी वस्तुके प्रति विचार करनेपर एक वस्तुका स्वभाव, उसका अपना उपादन होता है अर्थात् गुण उपादान माना जाता है तथा परस्तु के प्रति यही स्वभाव या गुणरूप उपादान निमित्त माना जाता है, यह निर्धार है । कार्यको उत्पन्न करनेवाला विरूप उपादान कारण ही होता है, निमित्तकारण नहीं, यह निश्चित है। कारण कि वह रहते हुए भी उपादान के far कार्य कभी प्रकट नहीं होता, यह प्रत्यक्ष देखने में आता है। अथवा-
पदार्थको कार्यको प्रकट करने
( २ ) एक ही पदार्थ में रहनेवाला उपादान और निमित्त उसी वाला होता है, अन्य पदार्थके प्रति असमर्थ और निरक यह का नियम है। जैसे कि घटकार्यके प्रति उसका उपादान कारण मिट्टी और निमित्त कारण ( सहकारी ) स्थास कोशशूलादि होते हैं तभी वह घट उसमें बनता है। दोनों ही अभिवदेशी व राभूत व्यवहाररूप हैं। कुंभकार आदि सब भिन्न प्रदेशी व असद्भूत व्यवहारख्प हैं । अव उनको निमित्तकारण माननेपर निमित्तोंकी संख्या सीमित न रहेंगी एवं वस्तु पराधीन हो जायगी । लोकका न्याय और आगमका न्याय पृक्क होता है। सासंद यह कि मूलद्रव्यको उपा दान कारण कहते हैं और उसकी पूर्वपर्यायोंको निमित्तकारण कहते हैं । तदनुसार उपादान निश्चयरूप है और निमित्त व्यवहाररूप है, इस तरहकी संनति बिठा ली जाती | उकं-- 'साध्यसाधनभावेन विधकः समुपास्यताम्' || कलदा समयसार १५ ॥ तथा पं बनारसीदासजी नाटकसमयसार में लिखते हैं
"उपादान निज गुण जहाँ, यहाँ निमित्त पर होय । उपादान परमाणविधि, विरला वृझे कोय ३१ ॥ उपादान बल जंह वहां नहि निमितको दाय । एकचक्र सो रथ चले रविको यही स्वभाव ॥ २ ॥ सबै वस्तु असहाय जंह तह निमित्त है कौन । ज्यों जहाज परवाह तिरे सहज विन पीन ॥ ३॥
१. दया था सब कोई कहे दया न जाने कोय । स्वपरदया जाने विना था कहाँ से हो पंचास्तिकायको टीकामै उल्लिखित है।