Book Title: Purusharthsiddhyupay
Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni
Publisher: Swadhin Granthamala Sagar

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Page 459
________________ पुरुषार्थसिधुपाय दूसरी तरह से निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शनके भेद (१) पर द्रव्योंसे भिन्न एक अखंड अपनी आत्माका ही श्रद्धान-अनुभव होना निश्चय सम्यग्दर्शन कहलाता है। इसमें एकत्व ( सामान्य ) की प्रधानता है तथा परद्रव्यों से भिन्न यहाँ विशेषकी प्रधानता है । इस तरह समुदाय रूपसे (सामान्य विशेष मिलकर) 'एकत्व विभक्तरूप, आत्माका श्रद्धान ज्ञान होना निश्चय सम्यग्दर्शन निश्चय सम्यग्ज्ञान सिद्ध होता है। (२) जीवादिसात मोक्षमार्गोपयोगी तत्वों का यथार्थ प्रदान करना, व्यवहार सम्यग्दर्शन है । प्रश्न:यहाँपर व्यवहारता क्या है ? जबकि यथार्थ श्रद्धान सभी में मौजूद रहता है, तब फरक ( भेद ) क्यों है ? इसका उत्तर यह है कि श्रद्धान गुण, ज्ञान गुणकी तरह निबिकल्प ( भेद या खंड रहित ) है, सब फिर उसमें सात खंड या भेद या आकाररूप विकल्प करना, महो व्यवहार है वनाम अयंटमें खंड करना है इत्यादि खुलासा है। ४. मोक्षके कारणों में भेद .. यों तो मोक्षके कारण सम्यग्दर्शन ज्ञान चारिथ ये तीन है, यह सामान्य कथन है। किन्तु उसमें जो सम्यग्दर्शन कारण है, उसके दूसरो तरह दो भेद हैं ( १ ) मुख्य कारण रूप (२) नियमित कारणरूप । यथा---(१) तत्वार्थ प्रधान, देवगुरुधर्मका श्रद्धान, स्वपरका श्रद्धान, आत्माका श्रद्धान-~~~ये चार भेद मुख्य कारण के हैं अथति ये होना ही चाहिये। किन्तु (२) नियमित कारण एक ही है और वह "विपरीत अभिप्राय ( श्रद्धान ) मे रहित होता है, अर्थात् अगृहोतमिथ्यात्वका छूटना है क्योंकि उसके होनेपर सम्यग्दर्शनका होना अनिवार्य है (व्यातिरूप है)। परन्तु पूर्वोक्त तत्त्वार्थश्रद्धान आदि चार कारणोंके रहते हुए सम्यग्दर्शनका होना अनिवार्य नहीं है, होय भी और नहीं भी होम ऐसा द्वन्द्व रूप ( विकल्परूप भाज्य है ) है ऐसा भेद समझ लेना चाहिये । नियम का अर्थ अविनाभावस्य व्याप्ति है किम्बहुना इसी उक्त नियमको व्यानमें रखनेसे स्पष्ट रूपसे सम्यग्दर्शनके दो रूपया भेद सहज ही समझ में आ जा सकते है ध्यान दिया जाय ! सम्यग्दर्शनके दो भेद (१) निश्चय सम्यग्दर्शन, जिस नियमित कारण ( अगृहीत मिथ्यादर्शन या विपरीत श्रद्धानका अभाव होना ) से सम्यग्दर्शनकी उत्पप्ति होती है या मानी जाती है, याने नियमित ( सच्चे ) कारणकी बदौलत हो उसके कार्य ( श्रद्धान ) को भो सच्चा या सम्यकदर्शन कहते हैं अर्थात निश्चय सम्यग्दर्शन कहते हैं। यहाँ यह कथन कारणकी अपेक्षासे कार्यका भेव मानना रूप है अर्थात् सभ्यग्दर्शनका भेद मानना रूप है। इसी तरह (२) व्यवहार सम्यग्दर्शन, यह दूसरा भेद है। अर्थात् जिस सम्यग्दर्शनके कारण मुख्य तो हैं किन्तु नियमित न हों किन्तु भाक्य या विकल्प रूप हों ( उनसे सम्यग्दर्शन होय न भी होय ऐसे हों) उन कारणों के कार्यको सम्यग्दर्शन कहना यह संभावमारूप, उपचार ही है ( अभूतार्थ है ) ऐसा भेद समझना चाहिये । अरे! जिसको वास्तबमें ( निश्चयों ) अखंड आत्माके श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन ग्राम हो जाता है उसको देवादिकके श्रद्धानरूप ( भेद या खंडरूप ) व्यवहार सम्यग्दर्शन तो हो ही जायगा ( अभेद या अर्षका भेद या खंड होना संभव है...योग्य है ) परन्तु खंड २ रूप व्यवहारसे अखंडस्प या अभेदरूप निश्चय हो ही जाय, यह निश्चित या ध्रुव नहीं है अतएम वह भाज्य रूप है। इस प्रकार कारणकी अपेक्षासे सम्यग्दर्शनके दो भेद बतलाये उन्हें समचना चाहिये 1 दर्शन या सम्यग्दर्शन आत्माका ही गुणरूप अंश है । जो निश्चय ( भूतार्थ ) है किन्तु गुण.

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