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परिशि ३. निश्चय और व्यवहार सम्यग्दर्भनकी भूमिका क्या है ?
(विषय-क्षेत्र-आधार क्या है ) इसका खुलासा (१) जो जीव सामात्य (द्रव्यत्व-गुमान-पर्यायस्थ के साथ विशेषको ( मनुष्यादि संयोगी पर्यायको यथार्थ ( भेदशान सहित या सामान्य विशेष परस्पर सांपेक्ष, गौशमुख्यरूप ) जानता है, उसको व्यवहारसम्यग्दृष्टि' कहते हैं । अतएव उसकी भूमिका या विषय भेदरूप है संयोगी पर्याय सहित द्रव्य है ।
(२) जो जीव संयोगीपर्यायके विकल्प रहित एवं ज्ञान के विकल्प रहित शुद्ध-अखंड एक आत्माको यथार्थ जानता है, उसको निश्चय सम्यादृष्टि या शुद्ध सम्यग्दृष्टि कहते हैं। उसकी भूमिका या विषय
परस्परामा मानिससम्यक्पना है...मिथ्यापना नहीं है अस्तु ।
भावार्थ.....जहां पर ( जिस अनुभव कालमें ) अपने व्यक्तित्व (विशेष) आदि किसी भी वस्तुको तरफ ख्याल या ध्यान न रहे ऐसे विकल्प शून्य ( सामान्य ) एकमात्र आत्मानुभवमें लीनता होनेका नाम निश्चय सम्यग्दर्शन है किन्तु उस समय गौणरूपसे वे व्यनित्यादि परस्पर सापेक्ष अवश्य सत्तामें मौजूद रहते हैं, उनका अभाव नहीं हो जाता ( साथ नहीं छूट जाता ) यह तात्पर्य है।
और जहां पर अपने व्यक्तित्वादि । विशेष-भेद ) भी प्रकटरूपसे ध्यान ( उपयोग ) में रहें एवं ज्ञानदर्शनादिका भी विकल्प उपयोगमें पाया जाय, 'उसको व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं, ऐसा समझना चाहिये।
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१.जो माणदि अरहर्स इत्यत्तगुणत्तपनयन्तेष्टिं ।
सो जाणदि अप्पार्ण सो हो खल यादि तप्तलयं ॥८॥अचानसार
अर्थ-जो भव्यभोध, आईन्तदेव ( विशेष पर्याय ) को, अव्यत्र गुणत्व पर्याय ( सामान्य ) सहित जानता है अर्याग सामान्य सहित विशेष रूपसे सापेक्ष जामता है, वह जीव, मानो अपने व्यक्तित्व ( विशेष) को भी द्रव्यत्यादि सामान्य सहित सापेक्ष जानता है कारण कि वस्तु ( पदार्थ ) का स्वरूप ऐसा ही है सापेक्ष है । सब वह व्यवहार सम्यग्दृष्टि हो जाता है-उसका अज्ञान ( मोह मिथ्यात्व ) नष्ट हो जाता है ऐसा स्पष्ट समझना चाहिये । यही बात आगे कहते हैं
एकोमाः सर्वभावस्वभावः. सर्व भाषा: कमावस्वभावाः।
एको भावः तत्त्वतः येच बुद्धः, सर्वे भावाः तस्वतः तेन वृक्षाः ॥१॥ अर्थ--जिस जीवने एक ( जीवादि ) पदार्थको अच्छी तरह जान लिया हो, समझलो उसने सब पदाओंको जान लिया है कारण कि जो स्वभाव ( स्वरूप सामान्य ) एक पदार्थका है, वही स्वभाव सब प्रदायोंका है ऐसा नियम है-बस्तुव्यवस्था है।
गाथाका ताल्पयार्थ -यह है कि जब कोई चैतन्यनिधानजामी जीव अपने शानका उपयोग कर अर्हन्स आदि परको और स्वयं अपनेको सामान्यविशेषरूपसे जानता है तब उस समय अज्ञान या मोह ( अन्धकार ) नष्ट हो जाता है अतएव शानस्वरूप उपयोगका हो जाना ही सम्यग्दर्शन नहीं तो और क्या है ? यह तात्पर्य है। अज्ञानको दूर करने का एक मात्र उपाय ज्ञानस्वरूप अपनी आत्माका संवेदन ही है, अर्थात् 'स्वसंवेदन है' बनाम स्वानुभव है। विचार किया जाय । सामसे अशान नष्ट होता है मह न्याय है।
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