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परिशिष्ट
सत्य व सही निश्चय होता है कि यह नकली है और यह असली है पश्चात् यह असली उपादेय है और यह नकली हेय है इत्यादि निर्णय स्वयं ही जाता है । देखो इसी पूर्वोकि अर्थ या प्रयोजनकी पुष्टिके लिये शास्त्रकारोंने 'हस्तावलम्व' और म्लेच्छभाषाका प्रयोग, ये शास्त्रीय उदाहरण दिये हैं सो बात एक ही है कोई फरक नहीं है, समझ लेना चाहिए। तात्पर्यार्थ यह है कि व्यवहार व निश्चयक्का स्वरूप कथन करना दोनों में भेद बताने के लिये होता है न कि दोनोंका ग्रहण या उपादान करानेके लिये होता है किन्तु जो प्रयोजनभूत होता है ग्रहण उसीका किया जाता है और जो अप्रयोजनभू ई उ यान पई होने लगता है, उसकी वीर खुद छोड़ देता हूँ | जैसे और अमृत दोनोंका स्वरूप कथन करनेसे दोनोंमें भेद मालूम होता और तब विषका त्याग अमृता ग्रहण होना स्वभाविक है ।
res fears a एक शास्त्रोंमें ऐसा भी कहा गया है कि 'व्यवहार' तीर्थ है याने मार्गरूप है अथवा तारनेवाला या पारलगानेवाला सामन उपाय ) हूं। और 'निश्चय' उस व्यवहारका फल है ( उपेयवस्तु हैं ) । अर्थात् जिसप्रकार साधनसे या मार्ग साध्यकी ( अभीष्ट स्थान या वस्तुको ) सिद्धि या प्राप्ति होती है, ठीक उसीप्रकार व्यवहार ( साधन ) द्वारा निश्चय ( साध्य ) की सिद्धि होती है, यह नियम है ( अविनाभाव या व्याप्ति है ) । इस तरह व्यवहार और निश्चयमें तीर्थ और उसके फल जैसा सम्बन्ध सझना चाहिये, किन्तु व्यवहार व निश्चयका परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है, ऐसा नहीं समझना चाहिये, यह ध्यान रखा जाय । यदि कहीं ऐसा सर्वथा सम्बन्ध न माना जाय अर्थात् बिलकुल सम्बन्ध तोड़ दिया जाय ( कथंचित् भी सम्बन्ध न माना जाय ) तब सब गड़बड़ी हो जायगी, तमाम लोक व्यवस्था नष्ट हो जायगी अर्थात न कोई लौकिक कार्य करेगा याने कोई साधन न जुटाया और साधनों के बिना न उसका कोई फल पायगा, यह बड़ी भारी हानि होगी या आपत्ति जायगी सारा संसार अकर्मण्य हो जायगा और दुःख उठाfer area atteककार्य ( असि-मषि कृषि विद्या-वाणिज्य-शिल्प आदि ) सभी साधन (व्यवहार) समझ कर अवश्य करना चाहिये, सर्वथा बन्द नहीं कर देना चाहिये, तभी लोकरोति व नीति चलेगी। साथ ही इसके यही २ सब कार्य हमेशा न करते रहना चाहिये अर्थात् हमेशा इनके करने में ही मग्न या दत्तचित्त नहीं हो जाना चाहिये, कभी इनको छोड़कर आत्मध्यान आदिमें भी लगना चाहिये, तभी पूर्ण सुख मिलेगा या शान्ति प्राप्ति होगी । सारांश यह कि योग्यतानुसार समय पर व्यवहार और निश्चय दोनोंका अवलम्बन करना ए एक नहीं, यह शिक्षा दी गई है। कार्य करते रहना, व्यवहार ( अशुद्धता ) है और उसका स्थाम करना, निश्चय है ( शृद्धता है । इसीका नाम सरागमार्ग व वीतरागमार्ग है ऐसा क्रमशः इसे समझना चाहिये अथवा संसारमार्ग व मोक्षमार्ग समझना चाहिये। व्यवहार और निश्चय न सर्वभा य है न सर्वेचा उपादेय हैं किन्तु कथंचित् य व उपादेय हैं। ऐसा जिनवाणी या स्याद्वादवाणी का उपदेश है। सिद्धान्तः निश्चय
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are fart पवितामा व्यवहारविवये मुइले ।
water for किज्जर दिव्य अण्येन उण सच्यं ।। १२ ।। समयसार क्षेत्रकगाथा :
अर्थ यदि कोई जैनपत ( सिद्धान्त को आनना चाहता है । उसको निश्चप और व्यवहार दोनों नामका बालमन या सहारा लेना पड़ेगा अर्थात् दोनों पर साहसे अभीष्ट सिद्धि होगी (मनोरथ पूर्ण होगा ) । एक किसको देने पर पूरा पदार्थ समझ में नहीं आवेश न उसका वर्णन किया जा सकेगा यह आपत्ति होगी। अतएव व्यवहारको तीर्थ याने मार्ग: रूप समझना और निश्चयको तीर्थका फल अर्थात् अभी स्थानकी प्राप्तिरूप समझना चाहिये यह सारा है (
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