Book Title: Purusharthsiddhyupay
Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni
Publisher: Swadhin Granthamala Sagar

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Page 467
________________ पुरुषार्थसिन्धुपाय १२. पर्यायदृष्टिसे जीवका शुद्ध-अशुद्ध स्वभाव १–संयोगी पायमें होने वाले रागादि विकारोंका अभाव हो जाना जीवका शुद्ध स्वभाव या स्वरूप ...... .......... .................. ..... ...... ........... २. रागादिधिकारीका अभाव न होना साथमें रहना जोनका अशुद्ध स्वभान हैं या अशुद्ध स्वरूप है। १३. मूलमें भूल क्या हुई ? आत्माका और परसदार्थका परमार्थ से अकालिक शेय-शायक सम्बन्ध है जो अटल है अताएक वह बदल नहीं सकता, यह सिद्धान्त है । बस, इसी में जीव अनादि कालसे भूल गया है जो निम्न प्रकार है । १----जीव ( आत्मा ) में ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध स्थानमें या प्रतिबिम्ब-प्रतिविम्बको स्थानमें 'स्वस्वामिसम्बन्ध, मान लिया है अर्थात् ज्ञेयोंका स्वामी या मालिक अपनेको मान लिया है। सर्वेसर्वा खुद बन गया है जो मूल भूल है। २ कर्ताकर्म सम्बन्ध स्थापित कर लिया है कि मैं उनका कर्ता हर्जा धर्ता हूँ इत्यादि भूल की है। ३...-फिर ममताभाव, आत्मीयता या अपनत्व अथवा ममत्त्र धारण कर लिया है कि ये सत्र में हूँ या ___ भेरे ....मुझसे इनका अभेद है, एकत्त्व है इत्यादि भूल की है। ४.... उसके बाद, रागद्वेष या इष्टानिष्ट बुद्धि उनमें करने लगा है, जो भूल है । ५..-फलस्वरूप कर्मबंधन या सजा मिलने लगी है जो भूल है । वह भूल कब व कैसे मिटे ? जन्म स्वरसानुभवी जीन्त्र (आत्मा) को अपने आप भेदज्ञानको उत्पत्ति होती है--कि मैं और ये पर पदार्थ भिन्न भिन्न हैं, एकरूप या अभिन्नतादात्मरूप नहीं है। अर्थात् ओ मैं हूँ सो वे नहीं है और जो वे हैं सो मैं नहीं हूँ, सब अपनी अपनी सत्ता लिये हुए पृथक् पृषक है इत्यादि भेवरूए प्रतीति होती है, तभी भूल व अज्ञान । परमें अभेदरूपज्ञान या मिथ्याज्ञान ) मिट जाता है और सही सही ज्ञान या सम्यग्ज्ञान प्रकार हो जाता है । बस उसीसे आत्मकल्याणका मार्ग ; उपाय ) मिल जाता है। उसी समय जीवको, यह मालूम होने लगता है कि अरे! मैस और अन्य पदार्थोका परस्पर सिर्फ ज्ञेय-जायक सम्बन्ध है-मैं ज्ञायक हैं, परपदार्थ सब ज्ञेय है। किन्नु मेरा उनका 'स्वस्वामी' सम्बन्ध नहीं है.-में उनका स्वामी नहीं हूँ, न ये मेरे सेवक हैं। न मैं उनका फिर्ता हूँ, न वे मेरे कर्म है। अतः उनका और मेरा कसाकर्म सम्बन्ध भी नहीं है। तब मेरी उनमें ममता भी नहीं है अर्थात् आत्मीयता बनाम वे मेरे हैं ऐसा सम्बन्ध भी नहीं है। न उनमें मेरा रागद्वेष भी है, न मैं इष्टानिय भाष उनमें करता हूँ, जिससे मुझे कर्मोका बन्ध भी नहीं होता, न सजा भोगना पड़ती है, कारण कि जब मैं कोई अपराध या गलती नहीं करता तब बंध और सजा काडेकी? मैं तो ज्ञायकाकार अपने शुद्ध स्वरूपका ज्ञाता ही हूँ न मैं उनका कत्ता हूँ, म उमका भोक्ता हूँ। ज्ञान या उपयोग या आत्माकी शुद्ध स्वतंत्र परिणामी हो जाने से कोई वसस नहीं रहता और निर्मोह या निर्विकल्प होकर अपने शुद्ध स्वरूपका हो स्वाद लेता व उसीमें लीन होता है या रमता है, कभी परका स्वाद नहीं लेता सिर्फ परको जानता मात्र ramanisammandit d aniumbinisan Agarger

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