Book Title: Purusharthsiddhyupay
Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni
Publisher: Swadhin Granthamala Sagar

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Page 463
________________ N ४५१ 17425282 पुरुषार्थसिपा भावार्थ - असमें आत्मा अचेतन ( अष्टरूप ) नहीं है किन्तु हेतुओं या सामान्य गुणों या प्रतिजीवीगुणोंके द्वारा उसमें बेलमला सिद्ध नहीं होती और विशेषगुणों या अनुजीवीगुणों ( हेतुओं के द्वारा घेत सिद्ध होती है, यह बतलाया गया है-- दूसरा कोई प्रयोजन नहीं हैं सिर्फ लक्ष्य लक्षणको शुद्ध निरोध बनानेका प्रयोजन है मस्तु । मेरी समझ में जो आया यह लिखा है, बुद्धिमान् विचार कर मान्यता देवे, किम्बहुना । ८. सात बच्चों में विपरीतताका खुलासा ( विपरीत श्रद्धान क्या है इत्यादि ) जैसा जीवद्रव्यका यथार्थ ( सत्य ) स्वरूप है साम जानकर उससे उल्टा या भिन्न प्रकार जानना च मानना ( अज्ञान करना ) जीवतत्वा मिथ्या ज्ञान बद्धान है अर्थात् जीवके विषय में विपरीतता है । जैसे कि जीवका सच्चा स्वरूप दर्शनज्ञानवारित्र है तथा परसे भिन्न और अपने गुणोंसे अभिन्न है। उसको सान आनकर परमें उसे मिलाकर अभिन्न जानना व मानना विपरीत अज्ञान व विपरीत ज्ञान है तथा arrant इन्द्रियात्रि दश ग्राण वाला मानना जो संयोगीपर्याय है, जिसमें जीव और अजीब ( पुद्गल ) यो द्रव्ये संयोगरूपसे मिली हुई हैं। इसमें विपरीतता या गलती यह है कि यह श्रद्धान व कथन अकेले (शुद्ध) teamer नहीं हूँ किन्तु दो द्रव्यकेि मेल से बनी संयोगीपर्याय ( अशुद्ध ) का है। यहीं अयथार्थ या मिथ्यास्वरूप जीवद्रव्यका है । फलतः उस ज्ञानवानसे मोक्ष कभी नहीं हो सकता । मोक्ष कर्मोके क्षयसे होता है परन्तु उक्त fisareeart ates कमका श्राय या संवर नहीं होता अपितु आनद और अँध होता है क्योकि परमें बोर अपने में भेद न मानने से परमें रागादिविकारी । अशुद्ध ) भाव हमेशा होते रहते हैं, जिनसे कमोंकी सन्तति निरंतर जारी रहती है कभी नए नहीं होती यह तात्पर्य है । यही विपरीतश्रद्धा संसारका कारण है । सारांश पृथक् २ दो द्रव्योंको अभेदरूप ( अपृथक ) मानना, जो असंभव है, मिथ्या है। ( २ ) इसी तरह अजीवद्रव्योम ( पुद्गलमें भी विपरीताका होता हेय है, यथा गलका प स्वरूप रूपरसगंधस्पर्श हैं, तथा परसे भिन्न है ( औवादि सबसे पृथक है और यह सिर्फ अपने- पुदगलमें हो रहता है । उसको वैसा न मानकर उल्टा मानना मिथ्यावद्धा या विपरीतता है । यथा सभी शरीरादिव ताद मेरे ( जीवारमा ) के हैं अर्थात् मेरेमें व उनमें भेत्र नहीं है, जो मैं हूँ सो वे हैं, और ये है, सो में हूँ, दोनोंमें: ( भिन्न २ होनेपर भी ) कोई भेद ( पृथक्ता ) नहीं है। अजीवतत्त्वमें विपरीतता ( मिथ्यात्व ) समझना चाहिये । इसीका नाम अज्ञानता है। बुद्धिभ्रम है । प्रश्न- जीव तो ज्ञानमय या ज्ञानस्वरूप है, वह अज्ञानी कैसे ? उत्तर- इस प्रकार हैं कि जबलक जीवका ज्ञान, जो उसकी ससा में हैं, भेदज्ञानरूप न हो अर्थात् मैद अनरूप पर्यायको धारण न करें ( प्राप्त न हो तबतक वह अशानी ही रहेगा, चाहे वह कुछ भी जाने या करे, ant अज्ञानता दूर न होगी । अतएव ज्ञान रहित न होनेपर भी भेदज्ञानरूप पर्यायके अभाव में अजानी है। माना जाता है | यह आपेक्षिक कथन है | किन्तु सर्वथा ज्ञानशून्य आत्मा कभी नहीं रहता, यह सिद्धान्त है, जिसका खुलासा मिन्न प्रकार है । जैसा आगमशास्त्री और अज्जीवका स्वरूप लिखा है, उसे मिन्न प्रकार मानना मिथ्यात्व या विपरीता यह निष्कर्ष । मोक्षमार्गप्रकाशक पेज २२५ से आगे } निर्णय--- । कुछ रूपान्तरम् दव्यसंग्रह । जं कुर्यादि भावमा कत्ता सो हीदि तस्य भाव चित्रद्वारा पोग्गलकम्माथ कचार ॥८॥

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