Book Title: Purusharthsiddhyupay
Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni
Publisher: Swadhin Granthamala Sagar

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Page 462
________________ परिशिष्ट ४५१ नीट- सच्ची निमित्त उपादानता, अभिशप्रदेशवाले पदार्थोंमें होती है, भिन्नप्रदेशवालोंमें मानना उपचार है । सम्यग्दर्शन और मिय्यादर्शन के निमित्तकारण कौन हैं ? उनका खुलासा farara सम्यग्दर्शनका निभिसकारण, विपरीत अभिप्रायका निकल जाना है तथा व्यवहारनयसे सम्यग्दर्शनका निमित्तकारण मिष्यामस्य कर्मका उपशम-सय-क्षयोपशम है। इसी तरह निश्चयसे मिथ्यादर्शनका निमित्तकारण विपरीत अभिप्रायका अस्तित्व है तथा व्यवहारनयसे मिथ्यादर्शन के निमित्तकारण मिथ्यात्यकर्म का सत्त्व व उदय है । उपादान कारण कौन है ? उनका खुलासा शुद्धपियन सम्यग्दर्शनका उपादान कारण, स्वयं आत्मद्रव्य है अखंडतम्य ज्ञायकाकार एक तथा अनिश्चयrयसे भेदरूप आत्मद्रव्य ही उपादानरूप है तथा अशुढनिश्चयनयसे आत्मद्रव्य ही मिथ्यादर्शनका उपादानकारण है परन्तु औपाधिकभाव होनेसे विनश्वर है, संयोगीपर्यायरूप है । ७. अनुजीवी व प्रतिजीवी गुणका खुलासा freeणोंसे जीवद्रव्यका अस्तित्व एवं व्यावृतत्व सिद्ध हो उनको ( १ ) अनुजीवीगुण कहते हैं ( सामान्यत: वे सभी द्रव्योंमें पृथक पृथक रहते हैं। जैसे कि जीवद्रव्यमें जीवनत्व (चेतनत्व ) को सिद्ध करने ज्ञानदर्शन सुखबल, मुख्य या विशेष गुण हैं, उन्हींसे जीवद्रव्यको सत्ता और अन्यसे व्यावृति ( पृथकता ) सिद्ध होती है। शेष ( साधारण ) गुण जैसे कि अस्तित्व वस्तुत्व प्रमेयत्व आदिसे जीवत्व सिद्ध नहीं होता, अतएव वे सब प्रतिजीवी ( जीवत्व या वेतनत्व से भिन्न या विपरीत ) हैं, कारण कि उनसे जीवत्व सिद्ध नहीं होता, ऐसा ही प्रत्येक द्रव्य में समझना चाहिये। इसका अर्थ अभावरूपगुण है अर्थात् अनुजीवी गुणोंके अभावरूप ( भिन्न ) हैं किन्तु सत्ताके अभावरूप अर्थ नहीं है, अन्यथा सिद्धान्तविरोध हो जायगा । ऐसी स्थिति में Recent अस्तित्व और अन्यद्रव्यों भिन्नत्व उसके अंगभूत या आत्मभूत गुण ज्ञानदर्शन ही सिद्ध करते हैं, अन्य कोई नहीं, यह निष्कर्ष है । द्रव्यमात्रका खास अस्तित्व सिद्ध नहीं किन्तु मात्र सहविपक्षी गुण कहते हैं। जैसे कि अस्तित्व Tere क्यों कि ये जीवत्व ( चेतनत्व ) सिद्ध करने में समर्थ (२) प्रतिजीवीगुण, जिनगुणोंसे जीवका या चरता सिद्ध हो, उनको प्रतिजीवो या अभावरूप उसके अगुरुलघुत्व प्रयत्व आदि सामान्य ( साधारण ) गुण, नहीं है। उक्तं च प्रमेयत्वादिभिर्धरविदात्मा चिदात्मक - शानदर्शनतस्तस्माच्चेतनाचेतनात्मक ॥ ३॥ अकलंकदेवकृत स्वरूवसंबोधन ग्रन्थ, प्रकाशक जैन सिद्धान्तप्र० ( संस्था महावीरजी, राजस्थान ) अर्थ -- प्रमेयत्वादिधमके द्वारा चेतनरूप आत्मामें चेतनता ( जीवत्व ) की सिद्धि नहीं होती क्योंकि वे सामान्यप्रतिजीवी गुण हैं । वस्तुतः उनसे अचेतनत्व ही सिद्ध होता है । तथा दर्शन ज्ञान आदि अनुजीवी गुणों के द्वारा चेतनता सिद्ध होती है । अतएव सिद्धि व असिद्धि इन दो नयों ( न्यायदृष्टि ) की अपेक्षासे आत्मह ( जीवद्रव्य ) यो तरह ( चेतन व अचेतन ) सिद्ध होता है । इसप्रकार अनुजीवी प्रतिजीवी गुणोंका खुलासा है, भ्रम नहीं रखना चाहिये 1

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