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पुरुषार्थसिद्धयुपाय व समझाना सराम अवस्थामें गिर जातकोतसा :- दरमा विकला करना अनुचित हेय व वर्जनीय ( निषिध्य ) है अन्यवा नामादिक तो सत्यभेदरूप हैं किन्तु लक्ष्य व लक्षणके रहनेका आधार एक है याने अभेदरूप है अर्थात् जहाँ लक्ष्य रहता है वहीं उसका लक्षण भी रहता है अतएव भेद मानना या कहना असत्य है, इत्यादि ठोस समाधान है, इसको ध्यानमें रखना चाहिये । रमानाथकी यह रीति वनीवि है। यहां तक द्रव्याथिकमयकी अपेक्षासे निश्चय-व्यवहार कहा गया है।
पर्यायाधिक भयकी अपेक्षासे निश्चय व व्यवहार जन्म जीयको पर्याय शुद्ध वीतरागतामम होती हैं तत्र उम्पको निश्चयरूप जीव कहत है या अशद्धजीव कहते हैं। और जब जीथकी पर्याय रागादिविकारमय होती है, तब उसको व्यवहाररूप जीव या अशद्धजीव भी कहते हैं। ऐसा पर्यायको अपेक्षा निश्चय व्यवहार भेद कहा है उसे समझना चाहिये ।
यहां प्रश्न है कि जब व्यवहार हेय है ( उपादेय नहीं ) तब गास्त्रोंमें उसका उल्लेख या निरूपण' क्यों किया गया है? अरे, जिससे कोई प्रयोजन नहीं, उसका नाम भी क्यों लेना, वह सब व्यर्थ है, जिस गांवको जाना नहीं उसको क्यों पंछना । उस्सर निम्न प्रकार है-----वह ऐसा कि भ्रमनिवारण करने के लिये या दोनोंमें भेद बताने लिवे बैंसा किया जाता है, यह एक निश्चय करनेका उपाय है अथवा सही गांयको जानने की विधि है। जब सामने अनेक मांत्र दिख रहे हों, उनमें गन्तब्य गांयका पता लगाने के लिये', अगन्तन्य गोवोंका भी परिचय व नामादि पूंछा जाता है कि यह कौन गांव है ? उससे गम्सथ्थ गांवका गिलान किया जाता है, तब भ्रम या बन्देह मिट जाता है । लेकिन सच्चे गांवका पता शब्दों द्वारा पंछनेसे ह्रीं तो लगता है। यदि शब्द न बोले जाते कि 'यह गांव कौन है, सो पता कैसे लगता, कौन उस गांवको बताता? यह एक प्रश्न खड़ा रहता, समाधान नहीं होता तथा गांव स्वयं बोलता नहीं कि मैं वह गन्तव्य गांव हूँ। ऐसी { पेंचीदी ) परिस्थिति में शब्दों या वाक्यों के द्वारा ही सच्ने गम्तव्य गांवका पता लग सकता है, अन्य उपायोंसे नहीं। लक उन शब्दों वाक्योरूप व्यवहार ( निमित्तसे ) ही सत्यका पता लगता है यह न्याय है। यहां पर शज्यों में व्यवहारता इरालिये सिद्ध हुई कि वे गम्तन्य गांवके निश्चयरूप ज्ञान होने में सहायक हो गये अतएव सत्यनानके होने में, यह कहा जाता है कि इसके वचनों में या कहने से ही हमको गत्रिका ज्ञान हुआ है या वचनोंने ही ज्ञान कराया है । फलतः परमार्थ ( गन्तव्य गांव ) का ज्ञान या पता, शब्दोंने ही कराया है गा दिया है।
भावार्थ-असलीका पता देना या उसका जीवोंको ज्ञान कराना इत्यादि सब व्यवहारके ही अधीन ठहरता है अर्थात् व्यवहार ही निश्चयका ज्ञापन का सूचक होता है अतएव वह व्यवहार भी हीन अवस्थों में, जबतक प्रत्यक्ष या पूर्णज्ञान । सर्वदर्शी ) नहीं होता तबतक वह भी आलम्बनीय ( उपादेय है। सारांशस्याहादन्यायसे कर्थचित् उपादेन है और कथंत्रिम् ( उच्चावस्या ) देय है ( उपादेय नहीं है ) ऐसा निर्धार करना या समझना चाहिये । पूर्णज्ञान { स्वावलंबीज्ञान ) हो जाने पर शब्दादिकको सहायताको आवश्यकला नहीं रहती इसी तरह गुरु-शिष्य या बक्ता-बोलाका भी हाल है । शलदोंडारा ही प्रश्न किया जाता है और शब्दोंद्वारा ही असर देकर ज्ञान कराया जाता है । और यह परम्परा प्राचीन व सनातनी है । तथा नकलीके सहारेसे ही असलीका ज्ञान होता है। अर्थात् जब नकली और असली दोनों सामने हों तब