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पुरुषार्थसिदधुपाय (१) भेदानित ( अखण्डमें खण्ट कल्पना करनारूप ), (२) पराश्रित ( दूसरेकी सहायता लेने रूप) अर्थात् निमित्तोंको अपेक्षासे करनेरूप, (३) पर्यायाश्रित ( संयोगी पर्यायके समान माननेरूप ) क्योंकि यथार्थ में वस्तु या आत्मा वैसी नहीं है। खाली कल्पना करना है पूर्वमें कई बार कहा भो गया है ।।२२२॥ आचार्य मुक्त आत्मा ( मोक्षगामी जीव ) का स्वरूप बताते हैं।
अनुपम स्थायी सच्चिदानन्दरूप है नित्यमपि निरुपलेपः स्वरूपसमवस्थितो निरुपधातः | गगनमिव परमपुरुषः परमपदे स्फुरति विशदतमः ।।२२३।।
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आस्मान की तरह हमेशा जी निर्मल ही रहता है। नहीं घास सकता है कोई निजस्वरूप में रमता है ॥ ऐसा शन आरमा पामा मिर्मल सुखद परमपद को।
और नहीं कोई पा सकता है, पामर रागी उस पद को ।।२३३॥ अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ परमपुरुषः ] मुक्तात्मा [नित्यमपि मिरुपलेपः स्वरूपसमवस्थित: निरुपधातः गगनमिव विशवतमः ] नित्य है, निरंजन है, स्वरूपमें लीन है, बाधा आदि उपद्रवोंसे रहित है, आकाशकी तरह अत्यन्त निर्मल है, ऐसा अनेक गुणसम्पन्न होता हुआ [ परमपदे स्फुरति ] मोक्ष स्थानमें स्फुरायमान होता है अर्थात् सदैव प्रकाशमान रहता है ॥२२२।।
भावार्थ-आत्मा ( जीव ) का उपर्युक्त स्वरूप स्वाभाविक है जो हमेशा उसमें मौजूद रहता है । द्रव्यदृष्टि से कभी वह नहीं बदलता ज्योंका त्यों रहता है। 'काले कल्पातेऽपि च गते शिवानन विक्रिया लक्ष्या. यह आगमका कथन है। इसका सम्बन्ध मोक्षसे है। किन्तु वह मोक्ष, शुद्ध अर्थात् अनादिकालीन परसंयोगसे रहित आत्माको अवस्थाका ही नाम है, वह आत्मासे भिन्न परद्रव्यरूप नहीं है, अतएव वह स्वाश्रित है अर्थात् निश्चयसे आत्माका ही है, परका (आकाशादिका ) नहीं है। अत: आत्माके प्रदेशोंके साथ अनादिकालसे संयुक्त पर द्रव्यों ( कर्म नोकर्मादि) का वियोग हो जाना अथवा संयोग छट जाना ही मोक्षका लक्षण समझना चाहिये। वह सच्चिदानन्दस्वरूप मुक्तात्मा (नित्य ज्ञान दर्शन सुखवाला) अनन्तकालतक अपने निजस्वरूप
१. आकारा या आस्मान । २.. मोक्ष स्थान। ३.. कायर या अभव्य मिथ्यादृष्टि । ४. "निरवशेषनिराकृतकर्ममलकालकस्याशरीरस्थात्मनः आत्यन्तिकमवस्थान्तरं मोक्षः' ----सर्वार्थसिद्धिटीका ।