Book Title: Purusharthsiddhyupay
Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni
Publisher: Swadhin Granthamala Sagar

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Page 441
________________ Ammayaintment... पुरुषार्थसिधुपाय राग और विराग, त्याग और ग्रहण सभी साथ-साथ होते रहते हैं। सारांश यह कि बस्तुका स्वभाव ( धर्म ही परद्रव्य के संयोगसे विभावरूप ( अधमरूप ) परिणत होजाता है पश्चात् वहींपर व्यका संयोग छुट जानेपर अपने मूलद्रव्यके स्वरूप में आ मिलता है अर्थात् शुद्ध स्वभावरूप परिणत होजाता है और यह षट्कर्म ( कारक ) जीव और पुद्गल दो द्रव्योंमें ही होता है क्योंकि उन्हों में ही वैसी उपादानता। पता है अन्यमें नहीं, ऐसा समझना चाहिये। कोई अचंभे या आश्चर्य करनेको बात नहीं है. अनेक धर्म वाली वस्तमें सब व्यवस्था होनेको योग्यता है-अत: उसमें अनेकान्त या अनेकधर्म निराबाध सिद्ध होजाते हैं । निश्चयनय और व्यवहारनय अथवा मस्य और गौण विवक्षासे अनेकधर्म हर बस्तु में सिद्ध होते हैं, विवाद करना व्यर्थ है, निश्चय और व्यवहारमें कुशल ( ज्ञाता ) ध्यक्ति ही सम्यग्दृष्टि एवं नियत स्वलक्षणवाली प्रज्ञाका धनी ( सम्बगज्ञानो ) होसकता है अन्य नहीं यह निष्कर्ष है। स्वाश्रितधर्म निश्चयरूप है और पराश्रितधर्म ध्यवहाररूप है ऐसा समझना चाहिये ॥ २२१॥ आचार्य अन्तमें उपसंहाररूप कथन ( निष्कर्ष ) करते हैं । आत्मा या पुरुषको प्रयोजनसिद्धिका उपाय यही है यह बताते हैं सम्यक्चरित्रबोधलक्षणो मोक्षमार्ग इत्येषः । मुख्योपचाररूपः प्रापयति परमपदं पुरुषम् ॥२२२॥ . मोक्षमार्ग ती एकरूप है, वर्शन चारित बोध मयी। उसके मी दो रूप है हैं, निश्चय अरु व्यवहार दूधी ॥ मोक्ष महल पहुँचानेवाला, मुख्यरूप निश्चन ही है। गौणरूप म्यवहार मार्ग तो, उपचर शशि थसाता है ॥२२२ ।। अन्धय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि सम्बनचरित्रबोधलक्षणः एषः मोक्षमार्ग इति ] निश्चय से सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान-सम्यक्त्वारित्र इन तीनोंको एकतारूप एक ही मोक्षका मार्ग है ( दूसरा नहीं है ) । परन्तु कथन करने की अपेक्षासे अर्थात् वचनों या शब्दोंका सहारा लेनेसे उसके [ मुरुयोपशाररूप: ] मुख्य और उपचार ऐसे दो भेद माने गये हैं तथा [पुरुष परमपदं प्रापयति ] आत्माको वह मोक्षमार्ग, मोक्षमें पहुँचा देता है ऐसा सामान्यतः कहा गया है ।। २२२ ।। भावार्थ-रत्नत्रयकी प्राप्ति हो जाना हो स्वाश्रित अर्थात् निश्चयनयसे मोक्षका मार्ग है और वह उस आत्माको नियमसे मोक्ष पहूंचा देता है। चाहे यह तथ्य किससे कहा जाय या न कहा जाय । क्योंकि व्यक्त गुण ही गुणीको उच्च या उन्नत बना देते हैं, उसके लिये कथन करने की घोषणा करने की या शब्दोंका सहारा लेनेकी जरूरत नहीं है, कारण कि मोक्ष, पराश्रित (कथनके आधीन ) नहीं है। यदि ऐसा होने लगे तो मूक केवलियोंको मोक्ष कदापि प्राप्त न होगा यह दोष आयमा, यत: वे बोलते ही नहीं हैं। फलत: निश्चयनयसे ( अध्यात्मकी अपेक्षा)

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