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কি মিথ है। अर्थात् कथन करने के समय एक नय मुख्य रहता है अतः वैसा ही कथन किया जाता है और दूसरा नय मौण रहता है अत: दूसरा धर्म नहीं कहा जाता, परन्तु वह शक्तिरूपसे मौजूद (सापेक्ष) अवश्य रहता है. नष्ट नहीं हो जाता जिसका प्रारूप ( आकार प्रकार ) ऐसा है कि कथंचित ऐसा है और कथंचित् वैसा है, किन्तु सर्वथा न ऐसा है न बैसा है इत्यादि । यथा द्रव्याधिकनयसे ऐसा है ( नित्य है ) और पर्यायाथिक नयसे ऐसा ( अनित्य ) है, लेकिन सापेक्ष विवक्षा या नयभेदसे हो अनेकधर्म या अनेकान्त वस्तु में सिद्ध होते हैं। यह विधि ( उपाय स्याद्वादनयरूप ) और किसी मतमें नहीं पाई जाती, सिर्फ जैनमत में ही पाई जाती है, जिससे सबका समाधान होजाता है, यही उत्कृष्टताकी निशानी है । यहाँपर पुष्टि में ग्वालिनका दुष्टान्त दिया जाता है कि [ गोपी मम्थामा नेत्रमित अति जैसे ग्वालिम स्त्री मयामी में लगी रस्सीको जब एक हाथसे कड़ी और एक हायसे ढीली करती हैं. सभी बार-बार ऐसा करते-करते दूध दही मेंसे घी निकलता है, बिना ऐसा किये धी नहीं निकल सकता अर्थात् एक हाथकी रस्सीको ढीला करना और एक हाथकी रस्सीको चुस्त या कड़ा करना अम यहो घो निकालने की रोति है। इसके विपरीत यदि रस्सोको कडा व ढीला न किया जाय, न घुमाया जाय, या दोनों हाथोंको खोंच दिया जाय या ढीलाकर छोड़ दिया जाय तो घी नहीं निकल सकता व मटकिया फूट सकती है, ग्वालिन जमीनपर गिर पड़ सकती है, दूध दही बगर जा सकता है इत्यादि नुकसान ही होना सम्भव है। ऐसी अन्तिम शिक्षा देकर आचार्य ग्रन्थको समाप्तकर रहे हैं कि हमेशा गौणमुख्य न्यायसे अर्थात् व्यवहार और निश्चयसे या द्रव्यार्थिक सोर पर्यायाथिकनयसे समय-समयपर विवक्षा बदल करके अनेकान्त या एक वस्तुमें अनेक घोकी सिद्धि बराबर होसकती है कोई बाधा या अड़चन नहीं आती, परन्तु सर्वथा या एकान्तपक्ष (निरपेक्षता ) छोड़ देना चाहिये जो कि मिथ्यात्वको निशानी ( लिंग ) है वस्तु सापेक्ष है।
शब्दोंके द्वारा पदार्थक सभी धर्म एकसाथ नहीं कहे जासकते यह न्याय है एक बारमें एक ही धर्म कहा जाता है । अतएव उतना ही एकधर्म मान बैठना अज्ञानता है या पक्षपात या एकान्त है। ऐसी स्थिति में जननीति ( स्याद्वादनीति । यह कहती व समझाती है कि 'इतनो हो वस्तु नहीं है, किन्तु यह वस्तुका एक देश है, अभी वस्तुमै और अंश ( धर्म भरे हुए हैं जो क्रमशः अनेक बार कहे जायगे धबड़ाना नहीं । कथंचित् और स्थावाद या अनेकान्तकी कड़ी सबको एकत्रित कर सुमार्गपर लाती है, कुमार्गपर जाने से बचाती है अतएव उसीकी विजय हमेशा होती है ।। २२५ ।। आचार्य अन्त में अपनी लधुता या अकर्तृता बतलाते हैं।
निश्चयनयका कथन करते हैं वर्णैः कृतानि चित्रैः पदानि तु पदैः कृतानि वाक्यानि | थाक्यैः कृतं पवित्रं शास्त्रमिदं न पुनः अस्माभिः ।।२२६॥
तरह तरह के दोसे ही पद बनते हैं नानारूप । भावारूप पदोंसे बनते वाक्य अनेक प्रकार सरूप।
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