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पुरुषार्थसिद्धपा
atrjie ft area aनत हैं, नहीं बनानेवाले हम यह सस्थारथ बात कही है, कर्ता हमें न मानो तुम ॥२२६॥
अभ्य अर्थ --- आचार्य कहते हैं कि [विः वः पदानि कृतानि ] तरह-तरह के अक्षरों (वर्णों ) नेपद बनाए हैं अर्थात् अक्षर हो पद बनाते हैं । [तु चित्रैः पदैः वाक्यानि मानि ] और तरह-तरह के पदों द्वारा बाक्य बनते हैं अर्थात् पद वाक्योंको बनाते हैं। तथा [ वाक्यैः इदं पवित्रं शास्त्रं कृतं
क्योंने यह पवित्र ( शुद्ध निर्दोष ) शास्त्र बनाया है ( पुरुषार्थसिद्धयुपाय ) | [ पुनः अस्माभिः न कृतं ] तब हमारा इसमें कुछ नहीं लगा है अर्थात् हम इस शास्त्रके कर्त्ता नहीं हैं ऐसा समझना, इस प्रकार लघुता व सचाई बतलाई है ||२२||
भावार्थ- मुमुक्षुजन मान बढ़ाई नहीं चाहते और हृदयसे सच्ची बात कहते हैं । उपर्युक्त कथन आचार्य महाराजकी शुद्धता व निरपेक्षताका द्योतक उज्ज्वल प्रमाण है। इस पर अवश्य aara ध्यान देना चाहिये, तात्विक दृष्टिसे उनका कहना बिलकुल सत्य है । उपादानताकी दृष्टिसे वे कभी परके (शास्त्र के कर्त्ता नहीं हो सकते, पुद्गल द्रव्य ही है व हो सकती है वे तो सिर्फ निमित्त कारणमात्र हैं, तब उनको उपादान कर्त्ता अर्थात् मूलकर्ता मानना भी असत्य है, अभूतार्थ ( व्यवहार ) है सत्य बास तो पुद्गलको कर्त्ता मानना है । अतएव ऐसे स्पष्ट वकाके चरणों में मेरा साष्टांग नमस्कार है । उनके तस्वनिरूपणको तुम कर मुझे अमित लाभ हुआ है अतएव में महान् कृतज्ञ हैं, ओम् शान्तिः ।
गुरुमंत्र:
free featuresोलाइलेन, स्वयमपि विभूतः सन् पश्य घट्मास्यमेकम्, ।
हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाक्ष् मिधाम्रो ननु किमनुपलधिभीतिः किं चोपलब्धिः ॥ ३४॥
अर्थ- हे आत्मन् (जीव ) तू निरर्थक ( बेमतलब अप्रयोजनभूत ) विकल्पों में मत पड़, उनसे तेरा प्रयोजन सिद्ध न होगा ( स्वरूपोपलब्धि या आत्मदर्शन न होगा ) तू तो साररूप एक काम कर कि 'मास्य' छह कारकरूप विकल्पोंको छोड़कर सिर्फ एकत्व विभकरूप अपनेको देख ( विचार ) उपयोगको स्थिरकर, तब तुझको स्वयं अपने आप हो तेरे हो हृदय सरोवर ( चंचल मन या उपयोग ) में से एकाएकी 'आत्मदर्शन' होगा और निःसन्देह अवश्य होगा, विश्वास रख, जरा साधना करके देख, बात सही निकलेगी। यदि इतना नहीं कर सकेगा ( अपने एकस्व विभक्त स्वरूपको देखने के लिए मनको स्थिर न कर सकेगा अर्थात् सब तरफसे अथवा कर्त्ताकर्मादि छह कारकोंसे न हटायेगा ) तो पुद्गल ( जड़ कर्म व शरीरादि परद्रव्य ) से भिन्न प्रकाशवाले चित् चमत्काररूप अनुपम विभूति सहित तेरी आत्माकी उपलब्धि तुझे कदापि न होगी, अर्थात् तुझे सम्यग्दर्शन प्राप्त होगा । अतएव तु विकल्पों के भ्रमको निकालकर 'सर्व स्यज एकं भज' के मन्त्रको बारंबार स्मरणकर, तभी तेरा कल्याण होगा । सारांशकी बात ( शिक्षा ) यहीं है अधिक कहनेकी जरूरत नहीं है । इस कार्यके लिए कालकी सीमा ( छह माह ) नहीं है, वह अन्तर्मुहूर्त में हो सकता है।