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गुण ही मोक्षको प्राप्त करानेवाले होते हैं, शब्दादि अन्य कोई नहीं । प्रत्युत जब तक शब्द या feossafr होती रहती है, वचननिरोध ( योग निरोध ) नहीं होता, तबतक मोक्ष भी प्राप्र नहीं होता है । ऐसी स्थितिमें यथार्थ वस्तुस्वरूपका, शब्दों द्वारा कथन करना ( वर्णन करना ) सब व्यवहार ( पराश्रितपना ) कहलाता है, वह व्यवहाररूप या भेदरूप कथन, मोक्षका मार्ग नहीं है ( अभूतार्थ है । ऐसा समझना चाहिये । कथन या शब्द या भेद मोक्षका मार्ग या मोक्षमें पहुँचानेवाले नहीं हैं किन्तु गुण अभिन्न ही जीवको मोक्षमें पहुंचानेवाले होते हैं | व्यवहार मोक्षमार्गका निषेध किया जाता है, वह सत्य व सत्ताधारी नहीं है। मोक्षका मार्ग यथार्थ में एक ( रत्नत्रय समुदायरूप ही है किन्तु भेदरूप या पराश्रित या पर्यायाश्रित ( संयोगी अवस्थारूप ) अथवा व्यवहाररूप नहीं है। यह सारांश है । पेतर श्लोक नं० ४ में भी मुख्योपचारपद द्वारा freer और व्यवहार अर्थ लिया गया है, शब्दभेदसे अर्थभेद सर्वत्र नहीं होता
शंका- मोक्षमार्गको दो भेदरूप बतानेका क्या प्रयोजन है ?
इसका उत्तर - प्रमादी व अज्ञानी जीवोंको सुधारनेका लक्ष्य है, कि किसी तरह वे संसारसे पार हो जायें, बोर हो जाय, अशुभसे छूटे | शुभराम सहित सम्यग्दर्शनादि व्यवहारमोक्षमार्ग (पर्यायाश्रित ) कहलाता है और वीतरागता सहित सम्यग्दर्शनादि, free मोक्षमार्ग कहलाता है । परन्तु निश्चयमोक्षमार्गका प्राप्त होना आजकल सरल नहीं है, अधिकतर व्यवहारमोक्षमार्गका होना संभव है । अतएव स्वेच्छाचारी प्रमादी जीव यदि अशुभरामादिको छोड़कर, शुभरागादिमें ही लग जाय या उसमें रुचि करने लगें तो भी कुछ लाभ हो जायगा, पुण्यका बन्ध होने लगेगा, पापका बंध होता बन्द हो जायगा । अतः करुणाबुद्धिसे दो भेद किये गये हैं । उद्देश्य या प्रयोजन अच्छा है। लेकिन यह ध्यान रहे कि यह आलम्बन प्रारम्भ दशामें रहने तकको है, आगे के लिए नहीं है ।
उक्तं च
काले कलौ च खिसे देहे अन्नादिकीटके । इदमेव महच्चित्रं जिनसिंगधरा नराः ॥
तत्वको स्वरूपको यथार्थ समझकर यदि धारणा ( श्रद्धा ) बनाई जावे और कार्य किया जाय तो अवश्य लाभ हो लेकिन विना यथार्थ समझे मनमानी धारणा बनाकर कार्यं ( प्रवृत्ति ) करने से कभी अभोष्ट लाभ ( इष्टप्राप्ति ) नहीं हो सकता, यह ध्रुव है, व्यवहारके ३ भेद होते हैं ।
१. गुणोंकी प्राप्ति करना 'करनी' कहलाती है । उसीको निश्चय कहते हैं । और प्राप्ति नहीं करना, खाली कहना मात्र 'कंपनी' कहलाती है । उसको व्यवहार कहते हैं। इन दोनोंमें करने व कहने में } करना { श्रेष्ठ है-कार्यकारी हूँ किन्तु कहना श्रेष्ठ व कार्यकारी नहीं है । इसीसे सूक्तियोंमें कहा जाता है कि कथनी करनीका दरजा ऊँचा है। पं० द्यानतरामजी ने भी लिखा है कि करनी कर कंपनी करे, ज्ञानत सोई सांचा, इत्यादि । निश्चय व्यवहारका आशय व भेद समझना चाहिये । तदनुसार 'प्राप्ति' मोक्षका कारण है, कथनी मोक्षका कारण नहीं है - वह व्यवहाररूप है ।