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पुरुषार्थसिद्धघुयाय चले जाते हैं अर्थात् मोक्षको प्राप्त कर लेते हैं, यह फल बताया जाता है, इसे प्राप्त करना चाहिये ।। १३५ ।।
भावार्थ-यह न्याय या नीति है कि बिना प्रयोजन या फलके कोई मूर्ख आदमी भी किसी कार्य में प्रवृत्ति नहीं करता किन्तु फल प्राप्त होने के हो लोभसे हर कार्य करता है। तदनुसार सांसारिक सभी सरहके पदार्थ ब तज्जन्य सुख आदिका त्याग करना सरल कार्य नहीं है उसका त्याग हर कोई नहीं कर सकता, परन्तु जिन भेदज्ञानियों को यथार्थ ज्ञान हो जाता है, असली सुख व उसके गानोंकाथान प्रास होनेवाले पालमा लग जाता है वे उत्साहके साथ बिना भय के उन सांसारिक सभी चीजोंका त्याग बालकी बात में कर देते हैं और उसके फलस्वरूप मोक्षको प्राप्त कर लेते हैं यह तात्पर्य है। जो प्राणी संसार भोगविलासोंको छोड़ने में भय व. संकोच करते हैं वे कदापि मोक्ष नहीं जा सकते, संसारमें ही दुःख सहित जीवन व्यतीत करते हैं। मोक्ष ही एक ऐसा पदार्थ-निरुपद्रव निर्भय सुखमय अनुपम नित्य है कि उसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता । फलतः आत्महितेषी विवेकी जोव ही दुःखमय अनित्य चीजोंका त्यागकर उसके बदले में नित्य सुखमय चीज प्राप्त करते हैं यह विशेषता ज्ञानी व अज्ञानियोंमें है ! लेकिन उस मोक्षका मार्ग या उपाय निश्चयसे एक ( रत्नत्रय ) ही है-दूसरा नहीं है ऐसा पक्का समझना चाहिये, किम्बहुना । इस ग्रन्थमें व इस प्रकरण में प्राचार्य महाराजका यह अस्तिम वक्तव्य है कि अब सावधान होओ, मफलतमें व्यर्थं समय मत खोओ, यह नरभव मिलना फिर कठिन है इत्यादि ।। १३५ ।।
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श्यक्रमाशुद्विविधायि तस्किल पदव्यं समनं स्वयं । स्वदध्ये रतिमेति यः स नियतं सर्वापराश्यतः। बंधधसमुपेत्य निश्यमुदितः स्वज्योतिरछोच्छल
इतन्यासपूरपूर्णमहिमा शुद्धो भवामुख्यसे ।। १५५ ।। कलश अर्थ---अशुद्धता या विकारको उत्पन्न करनेवालो पोजोंको अर्थात् सम्पूर्ण परद्रव्योंको छोड़कर जन ज्ञानी आत्मा अपने निज स्वरूपमें उपयोगको लगाता है तब वह अपराधसे छूटता है तथा उसका पूर्ण बंध नष्ट होता है । इस तरह भावबन्ध ( रागादिरूप) और द्रव्यबंध ( ज्ञानाबरणादि कर्म नोकर्म ) दोनोंसे छूटकर अर्थात् अपराधसे मुक्त होकर या शुद्ध निरपराध होकर जल्दी ही मोक्षको जाता है अन्यथा नहीं, यह भाव है । फलत: मुमुक्षुओंको यही सनातन मार्ग पकड़कर उसपर निःसन्देह चलना चाहिये तभी कल्याण होगा, यह निष्कर्ष है ।। १३५ ।।
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