Book Title: Purusharthsiddhyupay
Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni
Publisher: Swadhin Granthamala Sagar

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Page 383
________________ पुरुषार्थसिद्धुपाप अन्वय अर्थ- आचार्य कहते हैं कि मिथ्योपदेशदान ] सस्यरूप मोक्षमार्मके प्रतिकूल असत्यरूपए सांसारिक कार्यों का संकल्पपूर्वक ( स्वार्थवश ) उपदेश देना ( मिथ्या उपदेश है ) तथा [ रहसोऽभ्याख्यानकूटलेखकृती ] एकान्तको गुप्त बातको एवं झूठ बातको स्वार्थवश लिखना या कहना [ घ न्यासापहास्यश्चमं साकारमंत्रभेदः ] और धरोहर ( अमानत ) के सम्बन्धमें अस्पष्ट या महमिल जबाव देना ( जितना बरा हो सो ले जावे इत्यादि ) तथा इशारा या संकेत समझकर दुससे कह देना ये पाँच सस्याणुव्रतीके अतिचार हैं जो वर्जनीय हैं। इनसे भावहिमा होती है ।। १८४ ।। भावार्थ..... प्रयोजनभूत कार्योको छोड़कर अन्यत्र सभी जगह सत्याणवती सत्य वचन बोले ( असत्य न बोले ) यह उसका मस्य कर्तव्य है। इसीके सिलसिले में यह स्पष्ट किया जाता है कि वह किसीके दबाउरे में आकर या लोभ लालचवश कभी भी राजा वसूकी तरह असत्य न बोले और खासकर पोशागार्ग ( सपा सत्याप प्रतिरल (प) कभी उपदेशादि न देवे अन्यथा वह सरासर मिथ्यादष्टि और असंयमी है { अञ्जका बकरा अर्थ करनेवाला जैसा हिंसाको धर्म बतानेवाला महापापी है) दीर्घ संसारी है। सच्चे धर्मात्मावतीको कोई चाह या स्वार्थपूर्तिका लक्ष्य नहीं रहता वह अधर्मसे बहुत डरता है तब क्यों झूठा बोलने चला ? नहीं बोलेगा। एकान्तकी या गुप्तकी बातको दूसरोंसे क्यों कहेगा? उसको कोई स्वार्थ नहीं रहता--दूसरेकी निन्दा या बदनामी को करना या चाहना विकारी भाव है उन्हें वह त्यागता है। अठा या व्यंगरूप या उत्प्रेक्षारूप ( अन्योक्तिरूप ) कथन करना भी कपद या मायाचार है-प्रत्तधारण करने में पाखण्ड है, अतः वह उसको भी बुरा समझता है, उसे नहीं करता। इसी तरह धरोहर आदिके विषयमें भी वह स्पष्ट जानकारी देकर सत्य व्यवहार करता है-मुहमिल या दो अर्थवाले वचन नहीं कहता जिनसे यथार्थ निर्णय न हो सके, क्योंकि वह अपराध है। गुप्तकषाय है-विकार परिणाम है ) इसी तरह इशारा या संकेत समझकर प्रऋट या जाहिर कर देना अन्याय है वह नहीं करता क्योंकि तोका उससे क्या प्रयोजन है ? उसका फल ( लाभ या हानि । लोकमें उसे कुछ नहीं मिलेगा भित्राय बदनामोके इत्यादि । अतएव उक्त सभी अतिचारोंको अप्रयोजन भूल समझ करके सत्यवती विवेकी छोड़ देते हैं नहीं करते। श्लोकमें 'मिथ्योपदेशपद' बड़ा महत्त्वका है। उसका अभिप्राय ऐमा है कि 'स्वयं अपराध करनेवाले से बड़ा पापो वह है जो अपराध करके उसका प्रचार करता है वह संसारको गुमराह करता है। इस न्यायसे स्वयं अज्ञानतावश यदि कोई मिथ्या ( मोक्षमार्गके विरुद्ध आचरण करने तो वह अपराधी जरूर है किन्तु यदि बह उसका उपदेश देकर संसारमें मिथ्यात्वका प्रचार करे, पूष्टि करे तो वह घोर अपराधी व अक्षम्य पापी है। लौकिक कार्यों में भला होना संभव कषायब हो जाती है, किन्तु पारलौकिक कार्यो में भूल होना मिथ्यात्वको निशानो है। इसीलिये को बन्दि लगाई गई हैं, उनको स्वच्छन्दता पर रोक लगाई गई है। व्रतीका मन, वचन तीनों पर नियन्त्रण रखना अनिवार्य है। कभी गलतीका प्रचार नहीं करना चाहिये यह सारांश है, अस्तु । नोट-यहाँ प्रश्न होता है कि 'न्यासापहारवचन' नामके अतिवारसे चारोका दूषण क्यों

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