Book Title: Purusharthsiddhyupay
Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni
Publisher: Swadhin Granthamala Sagar

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Page 402
________________ सेकरूचारित्रप्रकरण साधनोंको कम करना ( घटाना) भी है। दूसरे शब्दोंमें ( मुनिलिंग' व श्रावलिंग ) श्रमण संस्कृतिके सूचक है। परन्तु लिंग दो तरहके होते हैं...(१) द्रव्यलिंग ( बाह्य त्याग तपस्या) (२) भावलिंग ( अन्तरंग परिग्रहत्याग ) सो जो महात्मा दोनों लिंगोंसे परिपूर्ण हो जाते हैं वे आपको अपण संगतिमानमा समान हैं तथा वे ही मोक्षगामी व मोक्षमार्गके उपासक हैं। शेष जो पुरुष श्रुटि सहित हैं अर्थात् अन्तरंग लिंग व बहिरंग लिंग जिनके पूरा नहीं हो पाता वे यथार्थ में श्रमण संस्कृति के उपासक नहीं हैं-बहिर्भूत हैं यह निर्धार है। इसमें शिथिलाचारको स्थान नहीं है-शुद्धताका आलम्बन है । इसीलिये बाह्यलिंग होने पर भी जिनके भावलिंग ( सम्यग्दर्शनादित्रय ) न हो, उसको द्रयलिंगी { मुनि ) श्राहा जाता है जो मोक्षमार्गी व मोक्षगामो नहीं है। प्रत्युत संसारमार्गी हैखोटा रुपया जैसा है। कारण यह है कि मोक्ष व मोक्षमार्गमें भावलिंगकी ही प्रधानता है।' द्रष्यलिंगको प्रधानता नहीं है, वह तो आनुषांगिक है। उससे मुक्ति कदापि नहीं होती। हाँ, लोक व्यवहार में द्रव्यलिंगको महत्ता दी जाती है, परन्तु वह महत्ता पराश्रित होनेसे साध्यसाधक नहीं होती, उसको प्राप्त करनेवाले होन दशावाले कहलाते हैं क्योंकि वह द्रयलिंग शुभ राग ( कषायको मन्दता) से भी होता है और अशुभराग ( कषायको तीव्रता भय लोभ आदि ) से भी होता है, जो कार्यकारी नहीं है-कार्यकारी वह है जो वीतरागतापूर्वक हो । लोकव्यवहारको मान्यता अशुद्ध मान्यता है---शुद्ध मान्यता नहीं है। ऐसी स्थितिमें संयोगी पर्यायमें रहते हुए यदि कषायके वेगमें या उपशमादिके समय प्रास्तराम या भक्तिभाव हो तो पात्रदानादि शुभ कार्य करना चाहिये अथवा करना पड़ते हैं क्योंकि भूमिकाके अनुसार सभी कार्य होते हैं यह नियम है तथा जबतक इच्छानुसार कार्य न कर ले तबतक उसे चैन नहीं पड़तो सुख नहीं होता-शान्ति नहीं मिलती, अतः अगत्या ( विना रुचिके ) वह कार्य उस सरागो मुमुक्षुको करना हो पड़ता है, परन्तु भीतरसे अरुचि या उपेक्षा १. उतं च भावेश होई लिंगी, गहु लिंगी होइ दज्वमिसग । तम्हा कुणिज भावं, कि कीरइ इन्वलिंगीण ||४८|| भावपाहट कुंदवदाचार्य भावेण होइ गग्गो बाहिरलिंगेण किं च णग्गेण । कम्मपयडीण णियरं णासह भावण दव्यण ॥५४॥ गत्तणं अकज्ज भाषणरहियं जिणेहि पण्णसं । श्य णाणूणय णिच्च भाविज्जहि अप्पयं धीर ॥५५॥ सारांश-भादलिग ( सम्यग्दर्शनादिस्वभाव ) का होना साध्य [ मोक्ष ) का साधक है । इसीलिये प्रथम उसको ही शप्त करना चाहिये । भावसे जो नग्न है अर्थात् मिध्यात्वको जिसने पृथक कर दिया है वहीं असलमें नग्न है । बाहिरकी नग्नता ( वस्वादिका त्याग ) नग्नता नहीं है । कोका क्षय भावनग्नता ही करती है-द्रव्यमग्नता नहीं करती। अतः भावनग्नताके विना द्रव्यनग्नता मात्र नहीं करना चाहिये ऐसा जानकर हमेशा भावलिंग धारण करें।

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