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सकलचारित्रप्रकरण
(५) कायक्लेशतप इसमें परीषद् सहन करना मुख्य रहता है | शरीरका संस्कार उसे आराम देना बन्द रहता है। यह निर्ममत्वकी निशानी है । जबतक वह सहायता करता है तबतक उसको खुराक दी जाती है पश्चात् बन्द कर दी जाती है ।
करना,
(६) वृत्तिपरिसंख्यानतप इसमें भवितव्य पर निर्भर रहा जाता है, रागादिक छोड़ दिये जाते हैं | अटपटी प्रतिज्ञा पूरी होनेपर आहार लेना, अन्यथा नहीं लेना, यह कितना कठिन कार्य है । परन्तु वह भी परिणमनके अनुसार पूर्ण होता है। और पूर्ण न होनेपर हर्ष-विषाद नहीं करता, सन्तुष्ट रहता है यह बड़ी विचित्र बात है ।
इन छह बहिरंग तपोंको बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि भी कर सकता है व कर लेता है अतएव इनको बहिरंग तर कहते हैं । इनका सम्बन्ध कषायोंकी मन्दतासे या तीव्रता रहता है किन्तु farगतासे या अरुचि सम्बन्ध नहीं रहता क्योंकि मिथ्यादृष्टिके भी कषायोंकी दोनों (तीव्र व मन्द ) दशायें हुआ करती हैं । परन्तु अन्तरंग तप, सिर्फ सम्यग्दृष्टि विवेकी विरागी के हो होता है, जो वस्तु यथार्थं स्वरूपको समझता है कि क्या हैय है, क्या उपादेय है व क्यों है इत्यादि सभी Train जानता है | ज्ञान व वैराग्य ये दोनों आत्मा के गुण व स्वभाव हैं। अतः उनपर लक्ष्यका जाना आत्महिसके लिए है । परसे उन्मुखता हृदना ( उपयोग हटना ) और स्वोन्मुखताका होना ( अपनी ओर आना ) यह महान कार्य है ।
नोट- रागादि अन्तरंग परिग्रहके हटने बाह्यपरिग्रह अपने आप हट जाता है अर्थात् उसका अरुचि होनेसे ग्रहण ही नहीं किया जाता और पुराना भी दिना चाहके चला जाता है ( त्याग देता है ) यह नियम है ऐसा समझकर अन्तरंग परिग्रह ( रागादि ) का त्याग करना ही चाहिए, उसमें आगा-पीछा सोचनेको आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह अपनी चोज है ( स्वाश्रित है ) उसका उपयोग कभी भी किया जा सकता है - वह अपराध नहीं है न अन्याय है, किम्बहुना । विवेक कार्य करना चाहिये, जिससे लाभ हो, हानि न हो इत्यादि ।
आगे आचार्य अन्तरंग तपोंका वर्णन करते हैं ।
farst tergei प्रायश्चित्तं तथैव चोत्सर्गः ।
sarvataise ध्यानं भवति निषेव्यं तपोऽन्तरंगे मिति ॥ १९९ ॥
पद्य
faar और वैयाga दोनों प्रायश्चित और उस |
स्वाध्याय अह ध्यान कहीं से अन्तरंग त जानी दुर्गं ॥ इनके होते कर्मशत्रु नहिं आपासे आम निःसर्ग
जो कुछ पहिले घुसे हुए थे उन्हें हटा देता अपवर्ग १९९ ॥
१. प्रायश्चित्तविनयथैयावृत्त्यस्वाध्यायन्युत्सर्ग ध्यानातरम् ॥ २० ॥ ० ० १ २. किला या कोट रक्षक ।
३. स्वयं स्वभावतः t
४. मोक्ष- निर्वाण |