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पुरुषार्थसिपा
( १० ) बोधि अनुप्रेक्षा - रत्नत्रयधर्मका नाम 'बोधि' है अर्थात् सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञानसम्यक् चारित्रको 'बोध' कहते हैं। उसके प्राप्त होने का बारंबार चिन्तवन करना; क्योंकि वह दुर्लभ रत्न ( वस्तु) है, वह अवश्य प्राप्त करना चाहिये। उसके विना मनुष्यजीवन निष्फल है ऐसा समझना चाहिये ।
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( ११ ) संवरानुप्रेक्षा - कर्मास्रवको रोकना या रुकना संवर कहलाता है उससे संसारकी वृद्धि नहीं होती, कमी ही होती है । उसका बारंबार ध्यान व चिन्तयन करनेसे आत्महितको ओर झुकाव होता है, आवके कारणोंको छोड़ता है, अपना कर्तव्य पालन करता है ।
(१३) निर्जरानुप्रेक्षा -- कर्मोंको निर्जराका विचार करना मुक्ति के लिये अनिवार्य है । अतएव निर्जराके उपायका बार-बार विन्तवन करना निर्जरानुप्रेक्षा कहलाती है। उससे निर्जराका स्वरूप और उसके भेदोंका परिज्ञान होता है जो आत्माके हित में समझा जाता है ।
मोट- उपर्युक्त सभी अनुप्रेक्षाओंका बार-बार चिन्तवन करना चारित्र प्राप्तिका साधन है। अतएव चारित्रके भीतर ही उनका अन्तर्भाव होता है | चारित्रके प्रकरण में कहे गये सभी प्रकारों का उपयोग चारित्र में ही किया जाता है ऐसा समझना चाहिये । भावनाका अर्थ या उद्देश्य सिर्फ विचार करनेका नहीं है किन्तु विचारोंको शिथिल या विस्तृत न होने देना है अर्थात् जगाते रहना है ( मंत्र की तरह ) । उससे स्मृति ताजी रहकर आत्माको अपने कर्तव्य पालनको ओर प्रेरित करती है तथा यथाशक्ति बेसा व्यायादि की भी है। area भावनाका अर्थ कार्य करना क्रिया ) भी होता है ऐसा समझना चाहिये । २०५ ।।
आगे---- २२ बाईस परीषहोंका पालना श्रावकका कर्तव्य बतलाते हैं ।
आईस परीषहोंका स्वरूप
क्षुत्तृष्णा हिममुष्णं नग्नत्वं याचनारतिरलाभः |
देशो मसकादीनामाक्रोशो व्याधिदुःखमंगमलम् || २०६ || स्पर्शश्च तृष्णादीनामज्ञानमदर्शनं तथा प्रज्ञा । सत्कारपुरस्करः शय्या चर्या बधो निषद्या स्त्री ॥ २०७ ॥ द्वाविंशतिरप्येते परिपोढव्याः परीषहाः सततम् ! संक्लेशमुक्त मनसा संक्लेशनिमित्तभीतेन ॥ २०८ ॥
पक्ष
क्षुधा तृषा अरु जड़ा गर्मी नग्न याचना रति हानि । errer
१. अलाभ -लाभ नहीं होता ।
२. स्थान या घर ।
कादिककी जानो निन्दा रोग दुःख खानि ॥ २०६ ॥
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