Book Title: Purusharthsiddhyupay
Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni
Publisher: Swadhin Granthamala Sagar

View full book text
Previous | Next

Page 437
________________ १२६ पुरुषार्थसिद्धयुपायं आचर्य इसो उपर्युक्त तथ्यका खुलासा आगेके श्लोक द्वारा भी करते हैं । सति सम्यक्त्वचरित्रे तीर्थकराहारवन्धको भवतः । योगकषायौ नासति तत्पुनरस्मिन्नुदासीनम् ॥२१८॥ योग कषाय बंध करते हैं-तार हारकका पर दोनोंके साथ रहेसे-भ्रम होता हशचारिसका ।। दर्शन शाम उदास रहत हैं, बंधकार्य के करने में तीर्थकर आहारकके भी नहिं समर्थ हैं बांधन में ॥३१॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [सम्यक्त्वरिने सप्ति योगकषायो तार्थ कराह बन्धकी भवतः] सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्रके साथ रहते हुए ( मौजूदगी में ) योग और कषाय ये दोनों ही तीर्थकर तथा आहारक नामक पुण्यप्रकृतियोंका बन्ध करते हैं अर्थात् सम्यग्दर्शन व सम्यकचारित्र उनका बन्ध नहीं करते, इसके सबूत ( पुष्टि में कहा जाता है कि [ नासति ! अर्थात् यदि सम्यगदर्शन व सम्यक्चारित्र, योग व कषायके साथ न हों तो कभी अकेले दर्शन-चारित्रसे उनका (तीर्थकर और आहारकका ) बन्ध कदापि नहीं होगा। मिथ्याष्टिके कभी नहीं होता व योगस्पाय रहते हैं। अतएव यह सिद्ध होता है कि [ तत्पुनः अस्मिन् उदासीनम ] वे सम्यग्दर्शन व सम्यकचारित्रबन्धके करनेमें उदासीन रहते है अर्थात् बन्ध नहीं करते क्योंकि वे वीतरागतारूप हैं, रागद्वेष रहित उपेक्षामय सदेव रहते हैं, बन्ध करना उनका कार्य नहीं है ।। २१८ ॥ भावार्थ-यथार्थमें बन्धके करनेवाले योग व कषाय है अन्य कोई ( सम्यग्दर्शनादि ) नहीं हैं क्योंकि योग व कषाय विभावरूप हैं और सम्यग्दर्शनादि स्वभावरूप हैं। वस्तु या पदार्थको रक्षा करनेवाला उसका स्वभाव या धर्म हो होता है अर्थात् जबतक स्वभावमें स्थिरता आत्माको रहती है, तबतक उसमें विभाव नहीं होता या हो पाता, बस ग्रहो तो विभावसे आत्माको रक्षा करना है। और विभावके न होनेसे आत्माके आस्रव और बन्ध भी नहीं होगा, जिससे संसार छूट जायमा यह फल होगा। कहा भी है कि 'वत्थुसहाबो धम्मो' वस्तुका स्वभाव हो उसका धर्म है { रक्षक है । जहाँ स्वभावले च्युति हुई कि विभाव परिणति हुई और उसके होनेहो बंघरूप सजा मिली । यह खराबी या होनता सिर्फ जोव और पुद्गल इन दो द्रव्यों में ही होती है 1 अन्य द्रव्योंमें नहीं होती क्योंकि उनमें वैसी शक्ति नहीं है। और वह भी कब होती है जब दोनोंका परस्पर संयोग हो। ऐसी स्थिति में संयोगको दूर करना कर्तव्य है। सारांश यह हैकि बन्धके निमित्तकर्ता योग और कषाय दोनों है, परन्तु उनके साथ यदि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र हो तो वे दोनों भी तीर्थंकर और आहारक जैसी सर्वोच्च एण्यप्रकृतियोंका बंध करते हैं, ऐसा उपचारशे कहा जाता है और यदि सम्यग्दर्शनादि तीनों या एक १. रागद्वेषरहित वीतराग या उपेक्षारूप ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478