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Samitem
अन्तिम निष्कर्ष
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साथ न हो तो वे नरकगत्यादि पापप्रकृतियोंका बंध करते हैं। और जब योग व कषाय भी नहीं रहते, तब मोक्ष हो जाता है बन्ध नहीं होता। फलतः योगकषाय ( विभाव ) और सम्यग्दर्शनादि
स्वभाव का कार्य भिन्न-भिन्न प्रकार है, एक प्रकारका नहीं ऐसा समझना चाहिये। फलतः मोक्ष की प्राप्ति उपयोगशुद्धि एवं योगशुद्धि दोनोंसे होती है ।। २१८।। आचार्य आगे और भी शंका-समाधान करते हैं।
अन्य शास्त्रोंका उद्धरण देकर निर्णय करते हैं वो श्लोकों द्वारा
ननु कथमेवं सिद्धथति देवायुःप्रभृतिसत्प्रकृतिबंधः । सकलजनसुप्रसिद्धो रत्नत्रयधारिणां मुनिवराणाम् ॥ २१९ ॥
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पद्य सम्यग्दर्शन चारितसे यदि, बंध नहीं होता कोई । तो फिर देवायु आदिकका पुण्यवंध कैसे होई ।। सकल लोकमें यह प्रसिद्ध है सनत्रयधारी मुनिके।
पुण्यबंध होता है जब सक्ष, यह असत्य होगा उनके ॥ २१९ ॥ अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ननु यवं देवाशुःप्रवृतिप्रकृतिबंधः कथं सिध्यति ] शंकाकार यदि यह शंका ( प्रश्न ) करे कि-पुण्यप्रकृतियोंका बंध सम्यग्दर्शनादि रलाय नहीं करते तो फिर देवायु आदि पुण्यप्रकृतियोंका बंध होना कैसे सिद्ध होगा? यह बताया जाय । अन्यथा [ रत्नत्रयधारिणां मुनिवराणां सकलजनसुप्रसिद्धो बन्धोषिरुवघते ] रत्नत्रयधारो-मुनियोंके देवायु आदि पुण्यप्रकृतियोंका बंध होता है लोकमें यह प्रसिद्ध है, वह असत्य ठरेगा ( यह विरोध होगा )? यह पूर्वपक्षका श्लोक है। ( लोकापवादको शंका करके सिद्धान्तका खंडन नहीं किया जा सकता यह निष्कर्ष है )
आगे उत्तरपक्षका श्लोक लिखा जाता है। रत्नत्रयमिह हेतुर्निर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य | आस्रवति यत्त पुण्यं शुभोपयोगोऽयमपराधः ॥ २२० ॥
पहा
बंधहेतु सनम्रय नहिं है, उससे तो मुक्ति होती । पुण्यबंधका कारण वह है, जो शुभपरिणति संग होती। बंधरूप अपराध करत हैं, योगकषाथ उभय दोनों।
इससे उनका स्याग करत हैं, रमनयधारी, जानों ॥ २२० ।। अन्यय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [इह ननय निर्वाणस्यैव हेतुभवति अन्यस्य न ] इस