Book Title: Purusharthsiddhyupay
Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni
Publisher: Swadhin Granthamala Sagar

View full book text
Previous | Next

Page 438
________________ Samitem अन्तिम निष्कर्ष ४२० साथ न हो तो वे नरकगत्यादि पापप्रकृतियोंका बंध करते हैं। और जब योग व कषाय भी नहीं रहते, तब मोक्ष हो जाता है बन्ध नहीं होता। फलतः योगकषाय ( विभाव ) और सम्यग्दर्शनादि स्वभाव का कार्य भिन्न-भिन्न प्रकार है, एक प्रकारका नहीं ऐसा समझना चाहिये। फलतः मोक्ष की प्राप्ति उपयोगशुद्धि एवं योगशुद्धि दोनोंसे होती है ।। २१८।। आचार्य आगे और भी शंका-समाधान करते हैं। अन्य शास्त्रोंका उद्धरण देकर निर्णय करते हैं वो श्लोकों द्वारा ननु कथमेवं सिद्धथति देवायुःप्रभृतिसत्प्रकृतिबंधः । सकलजनसुप्रसिद्धो रत्नत्रयधारिणां मुनिवराणाम् ॥ २१९ ॥ .. m - Lash ..... ......... पद्य सम्यग्दर्शन चारितसे यदि, बंध नहीं होता कोई । तो फिर देवायु आदिकका पुण्यवंध कैसे होई ।। सकल लोकमें यह प्रसिद्ध है सनत्रयधारी मुनिके। पुण्यबंध होता है जब सक्ष, यह असत्य होगा उनके ॥ २१९ ॥ अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ननु यवं देवाशुःप्रवृतिप्रकृतिबंधः कथं सिध्यति ] शंकाकार यदि यह शंका ( प्रश्न ) करे कि-पुण्यप्रकृतियोंका बंध सम्यग्दर्शनादि रलाय नहीं करते तो फिर देवायु आदि पुण्यप्रकृतियोंका बंध होना कैसे सिद्ध होगा? यह बताया जाय । अन्यथा [ रत्नत्रयधारिणां मुनिवराणां सकलजनसुप्रसिद्धो बन्धोषिरुवघते ] रत्नत्रयधारो-मुनियोंके देवायु आदि पुण्यप्रकृतियोंका बंध होता है लोकमें यह प्रसिद्ध है, वह असत्य ठरेगा ( यह विरोध होगा )? यह पूर्वपक्षका श्लोक है। ( लोकापवादको शंका करके सिद्धान्तका खंडन नहीं किया जा सकता यह निष्कर्ष है ) आगे उत्तरपक्षका श्लोक लिखा जाता है। रत्नत्रयमिह हेतुर्निर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य | आस्रवति यत्त पुण्यं शुभोपयोगोऽयमपराधः ॥ २२० ॥ पहा बंधहेतु सनम्रय नहिं है, उससे तो मुक्ति होती । पुण्यबंधका कारण वह है, जो शुभपरिणति संग होती। बंधरूप अपराध करत हैं, योगकषाथ उभय दोनों। इससे उनका स्याग करत हैं, रमनयधारी, जानों ॥ २२० ।। अन्यय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [इह ननय निर्वाणस्यैव हेतुभवति अन्यस्य न ] इस

Loading...

Page Navigation
1 ... 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478