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पुरुषार्थसिरपुपाय यौवन, मकान, दुकान, राज्यसम्पदा, इन्द्रियाँ, उनके विषय--भोगोपभोग आदि समस्त वस्त अध है--विनश्वर है, स्थायी या नित्य कोई नहीं हैं अत: उनमें राग या एकत्व स्थापित करना मसाल है उनमें अहंकार करना उनका विश्वास करना व्यर्थ है वे सब जलके बबूला या इन्द्रजाला । धनुष ) व बिजली बादलोंकी तरह क्षणभरमें विलीन हो जाते हैं, किसी भी तरह के स्थिर नहीं है। रह सकते, तब उनमें भूल जाना, आसक हो जाना महान् अज्ञानता है। ऐसा समझकर न संघको छोड़कर एक अपने विस्व आत्माका सदैव चितवन करना लोन होना ही हितकर है।
(२) अशरणभावना--संसारमें कोई किसीका शरण या रक्षक नहीं है। समः पर्वको माया है कोरा भ्रम है । जब मरण या पतन होनेवाला होता है तब बड़े-बड़े कोट किला साद अस्त्रशस्त्र सेना नौकर धन दौलत आदि नहीं बचा सकते, किसी भी पदार्थ में ऐसी मात्रि नहीं कि वह किसी अन्यको मार या बचा सके। वस्तुस्थिति ( स्वतंत्र स्वसहाय ) निश्चयसे पो हो। किन्तु व्यवहार से इसके विपरीत माना जाता है, जो असत्य है। निमित्त हमेशा निमित्त । म की तरह ही कापरी हमदर्दी करता है. भीतर वह न प्रवेश कर पाता है न कार्य कर पाता। तब उनका बल भरामा करना व्यर्थ है नहीं करना चाहिये । यह अशरण भावना है। मस्त चिन्तवम है।
(३) एकत्वभावना-हमारा आत्मा परमे भिन्न 'अकेला' है अर्थात् परवाने तादात्मरूपसे नहीं मिलता सदैव पृथक रहता है और अपना कार्य स्वयं करता है जो कछ स्वात करता है, उसका फल स्वयं भोगता है अतएव परके पीछे भूलकर अपना अहित या अकल्यान करना मुर्खता है.--विवेकहोनता है। आत्मा सदेव एकत्व विभकरूप है ऐसा चिन्तन करना। एकत्व भावना ( अनुप्रेक्षा ) है । अपने गुणों के साथ ही एकता है--स्वचतुष्टयसे अभिन्नता है।
(४) अन्यस्वभावना-आत्मा और सभी द्रक्रय ( पदार्थ ) परस्पर पृथक-पृथक रहती है। अर्थात् वे भिन्नताकर शुद्धताको नहीं छोड़ती, सब उनका कर्तृत्व एक दूसरे को मानना अमानता है अर्थात् न हमारा आरमा पर ( किमी )का कर्ता है और न पर कोई हमारा कता है खाली निमित नैमित्तिक सम्बन्ध परस्पर रहता है, परिणमन सबका स्वतंत्र अपने-अपने में है। ऐसा निपनायो समझकर कर्तृत्वका अहंकार छोड़ देना सो अन्यत्यानुप्रेक्षा ( भावना) है। परचतुष्टयसे मिलता मानना बुद्धिमत्ता है।
नोट-एकत्व और अन्यत्वभावनामें विचारोंका भेद है। अर्थात् एकत्यभावनामें अपने गुणपर्यायोंके साथ ही एकता या कालिक { सदा ) अभेद माना जाता है कि हम द्रव्यरूपी एक स्वतन्त्र ( आत्मा ) द्रव्य हैं, दुसरी कोई द्रव्य हमारेमें तादात्मरूपसे नहीं मिली है अभएक हम अकेले हैं सिर्फ हमारे गुणपर्याय ही हमारे सदा साथी हैं इत्यादि ! और अन्यत्यभायला परसे भिन्नता या परके साथ अभेदका निषेध किया जाता है। अर्थात् स्वचतुष्टय के साथ एक और परचतुष्टय के साथ भिन्नत्वका विचार किया जाता है ऐसा भेद दोनों में समझना चाहिये। 'एकत्व विभक्त' का ही दूसरा नाम 'एकत्व अन्यत्व' है-शब्द भिन्न-भिन्न है अर्थ दोनो एक है । वस्तुका अनादिनिधनस्वरूप ऐसा ही है।
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