Book Title: Purusharthsiddhyupay
Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni
Publisher: Swadhin Granthamala Sagar

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Page 416
________________ ४०५ सकलचारित्रप्रकरण (१०) ब्रह्मचर्यधर्म-स्थीमात्रका व कषाय ( वेद । मात्रका त्याग करनेसे ग्रह धर्म पलत्ता है, यह सर्वोत्कृष्ट धर्म है ! इसके दो भेद होते हैं (१) अणुब्रह्मचर्य ( अणुव्रतरूप अर्थात् देशचारित्र)। (२) महाब्रह्मवयं ( महाव्रतरूप पूर्णचारित्र ) । अथवा अन्नतो ब्रह्मचर्य और व्रती ब्रह्मचर्य । व्रतीब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी पाल सकता है और अव्रती ब्रह्मचर्य विद्याथी आदि पाल सकते हैं यह भेद है। नोट-उक्त दश धर्मों के क्रम में यद्यपि परिवर्तन अनेक जगह पाया जाता है परन्तु संख्या व अर्थमें कोई भेद नहीं है, उद्देश्य सबका एक है--विकारीभावोंको आत्मासे निकालना, अतएव कोई दोष नहीं आता ऐसा समझना चाहिये ।। २०४ ।। __आगे---१२ बारह अनुप्रेक्षाओं ( भावनाओं) का पालना भी श्रावकका मुख्य कर्तव्य बताया जाता है। अध्रुवमशरणमेकत्वमन्यताऽशौचमास्रवो जन्म । लोककृषबोधिसंवरनिर्जराः सततमनुप्रेक्ष्याः ॥ २०५॥ पद्य अधव अशरण एक अभ्यता अशुचि आनन संसर आन । लोक धर्म बोधि अरु संघर मिर्जर भायन बारह मान । ये उपाय उपजावन हारे-सवैराग्य कहे भगवान् । जिनका लक्ष्य मोक्ष जानेका इनका करें अवश आह्वान ।। २०५ ।। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ अध्रुश्चमशरणमेकरवमभ्यताऽशौचमानव जन्म ] अध्रुव अर्थात् अनित्य, अशरण, एकात्व, अन्यत्व (ता) अशौच, आस्रव, संसार ( जन्म ) ये सात तथा [लोवृषधोधिसंबनिसः ] लोक, धर्म, बोधि ( रत्नत्रय ) संवर, निर्जरा ये पांच कुल १२ बारह चीजें [ सततमनुप्रेक्ष्याः ] हमेशा बारंबार चिन्तवन करने योग्य हैं । अतः इनको अनुप्रेक्षा या भावना कहते हैं ।। २०५ ॥ भावा...आत्मकल्याण के लिये या संसार शरीर भोगोंसे निवृत्त ( पृथक् ) होने के लिये जबतक उक्त बारह प्रकारकी चीजोंका गुणदोष न विचारा जाय तबतक न उनसे अचि होती है न त्याग किया जा सकता है। अतएव नीचे उनका स्वरूप बताया जाता है। ये वैराग्यको उपजाती हैं तथा भावनाओंसे विचारों या भावोंमें ताजगी ( नवीन स्मुक्ति ) रहती है यह लाम होता है। (१) अध्रुवानुप्रेक्षा----इसीका नाम अनित्यभावना है। इस संसारमें सन, मन, धन, १. 'एकत्वविभक्त' का नाम ही 'एकत्व अन्यत्व' है -समयसार । २. संसार।

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