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सकलचास्त्रिप्रकरण
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ब्रह्मचर्य, त्याग, तप, संयम ये पांच कुल दश [ धर्म: सेव्य ] धर्म सेवन करने अर्थात् पालनेके योग्य हैं, बतियोंको अवश्य पालना चाहिये । २०४ ।।
भावार्थ-उपयुक्त दक्ष धर्म, जो ब्राह्म आलम्बन रूप हैं अर्थात् बाह्य निन्द्य क्रियाओं ( असत्प्रवृत्तियों ) को त्यागकर प्रशस्त क्रियाओंके करने रूप हैं ( सदानार रूप हैं शभ प्रवृत्ति रूप हैं ) उसको व्यवहार धर्म कहा गया है जो पुण्यबंधका कारण है। अतएव हीनावस्थामें अथवा सराग या संयोगीपर्याय में, चरणानुयोगको पद्धति के अनुसार उनका पालना श्रावकका मुख्य कर्तव्य है क्योंकि उससे अधिक (बीतागतारूप शुद्ध) धर्म, यह उस अवस्थामें धारण ही नहीं कर सकता, यह नियम है । फलतः पापबंधका न होना और पुण्याबंघका होना यह क्या कम है ? नहीं है-विशेष है।
प्रत्येक धर्मका लक्षण निम्न प्रकार है।
(१) क्षमा (क्षान्ति ) धर्म-सहनशीलताका नाम या क्रोधका न होना ही क्षमाधर्म कहलाता है । परन्तु उसको पनिभान गा सना परिचय परीवा } तय होता जब कि क्रोध (विकार ) उत्पन्न होने के कारण उपस्थित हो परन्तु सामर्थ्य रहते हुए भी (प्रतीकार करनेकी शक्ति रहते हुए भी ) क्रोध न किया जाय और न उसका बदला दिया जाय । अर्थात् असमर्थ या तुच्छ जीवों (प्राणियों ) के द्वारा शक्तिशाली जीवोंको व्यर्थ सताये जाने पर भी ( मारना बांधना माली देना, कंकर पत्थर मारना रूप बाधा देनेपर भी ) क्रोध कमायको जीतने के कारण जरा भी उन शक्तिहीन या क्षुद्र प्राणियों के प्रति म क्रोध उत्पन्ना न उनको दंड देना, यह क्षमाका सही परिचय है। इसके विपरीत शक्तिशाली जीवोंके द्वारा उपद्रव या बाधा देने पर यदि कोई शक्तिहीन जीव बाहिर कुछ भी नहीं करता न कहता है, परन्तु भीतर उसका परिणाम विगढ़ रहा हैबदला लेनेकी भावना हो रही है तो वह उत्तमक्षमा गुणका धारी नहीं है न उसको क्षमावाला कहना चाहिये । इसीलिये 'जह असमस्थय दोष खमिज्जइ' इत्यादि क्षमाका लक्षण लिखा गया है। क्षमा धर्मको, पृथ्वीको उपमा गई है। जैसे पृथ्वोपर कुछ भी डालते रहो या उपद्रव करते रहो परन्तु वह चुप ( ६..त ) रहती है बदला नहीं लेती इत्यादि समझना ! क्षमा धर्मको धातक क्रोधकषाय होती है, उसके अभावमें क्षमा होती है, यह क्षमा आत्माका बड़ा गुण और भूषण है, अस्तु । निश्चयसे जबतक जीवको स्वोन्मुखता नहीं होती, परोन्मुखता ही रहती है तबतक उत्तम क्षमा ( अपूर्वक्षमा ) हो हो नहीं सकती वह सम्यग्दृष्टिके ही होती है।
(२) मार्दवधर्म---मान कषायके अभाव में होता है। मार्दवका अर्थ विनयका होना हैकठोरता या अहंकारताका छूटना है । जबतक आत्मामें पृथ्वीको तरह कठोरता रहती है, तबतक उसमें बीज डालनेसे नहीं उगता न फल देता है। मानी आदमी किसी को कुछ नहीं समझता, उसको किसीकी शिक्षा नहीं लगती यहाँ तक कि उसको अपनो आत्माका भी आदर ( गौरव ) नहीं होता हमेशा निरादर करता रहता है, उसका कल्याण नहीं होता। अतएव मानकषायको त्यागकर मादेव गुणका धारण करना अनिवार्य है। निश्चयसे मार्दवधर्म (आत्माका आदर व बिनय करना ) सम्यग्दृष्टिके ही हो सकता है, मिथ्यादृष्टिक नहीं ।