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उसका मूलकारण योग व कषाय ही है। इसी तरह औदारिकशरीर आदिका बन्ध होना नोकर्मवन्ध कहलाता है सो वह भी योग और कषायसे ही होता है । इसीलिये संयोगोपर्याय में बन्धके मूलकारण योग व कषाय ( निमित्तरूप ) माने गये हैं ऐसा निश्चय करना चाहिये । इसके विपरीत पुद्गलद्रव्य के परस्पर बन्ध होने में मूलकारण पुद्गलगत रूप, रस, गंध, स्पर्श हैं, उनसे ही स्कन्ध बनता है वे उसके अन्तरंग ( उपादान ) कारण हैं । बाह्य कारण ( निमित्त ) जलादिक पदार्थ है । जीवबन्ध होने में अर्थात् जीवके विकारीभाव ( रागादिक ) होने में निमित्तकारण द्रव्यकर्मका उदय है, क्योंकि उदय होते समय ही जीवद्रव्य में स्वतः स्वभाव रागादि विकारीभाव हुआ करते हैं । इसी तरह जीवद्रव्यमें विकारीभाव होने के समय ही, कार्माण ( पुद्गल ) द्रव्य जीवके साथ आकर बन्धरूप हो जाती है अतः जीवके विकारीभाव कर्मबन्धके प्रति निमित्तकारण हैं ऐसा निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध समझना चाहिये । इस प्रकार बंधकी सन्तानपरम्परा अनादिसे चलती आती है और मुक्ति होनेके पहिलेतक चलती रहेगी।
नोट- निश्चयसे भिन्न प्रदेशी दो द्रव्योंके बन्ध होने में निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध ही माना जाता है. उपादान सम्बन्ध नहीं माना जा सकता । उपादान सम्बन्ध अभिन्न प्रदेशी एक द्रव्यमें ही माना जाता है अर्थात् उस द्रव्यकी कार्यपर्यायके प्रति उसीको उपादान माना जाता है किसीका किसी में मिलाना व्यवहार है, निश्चय नहीं है ।
पुद्गलरूप (कर्म) बन्se free free
एकगुण ( जघन्य गुण वाले पुद्गलद्रव्यका और एकगुण अधिकवाले पुद्गलद्रव्यका तो कभी बन्ध होता ही नहीं है, यह अबन्ध हो रहता है किन्तु कमसे कम दो गुण अधिक ( एक दूसरेसे वाले पुद्गलोका ही बन्ध होता है ऐसा नियम है। चाहे वे रूक्ष रूक्ष हों या स्निग्ध-स्निग्व हों या रूक्षस्निग्ध हों, उनमें कोई रुकावट (निषेध ) नहीं है । कहा भी है
जिस णिण दुरायेण रुक्खरूल रुषेण दुराहिषेण ।
free green वेइ बन्धी, जण्णवज्जे विषमे समेया ६१५ || जीवांडगोम्मटसार
यहाँ भ्रम नहीं करना, नियम बराबर पाया जाता है || २१५||
आगे आचार्य निश्चय रत्नत्रयका स्वरूप बतलाते हैं ।
वह बन्धका कारण नहीं है
दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः । स्थितिरात्मनि चारित्रं कुतः एतेभ्यो भवति बंधः ॥२१६॥
पद्म
निज marat श्रद्धा करमा सम्यग्दर्श कहाता है । निज आरामका ज्ञान जु करना सम्यग्ज्ञान कहाता है