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अन्तिम निष्कर्ष
नोट--सम्यक्त्वाचरणका नाम हो, स्वरूपाचरणचारित्र है, जो शुद्ध वीतरागतारूप है, २५ दोषोंसे रहित है । यही बात चारित्रपाहुड़में थी कुन्दकुन्दाचार्यने कही है । यथा---
जिणणादिहि-सुखं पटमं सम्मत्तचरणचारित्त । विदियं संथमचरण जिणणाण सदेसियं तं वि॥ ५ ॥ चारित्रवाह
अर्थ--जिन सर्वज्ञके ज्ञानमें शुद्ध वीतरागतारूप सम्यक्त्वाचरण अथवा स्वरूपाचरण चारित्र और संयमाचरणचारित्र ( सरागचारित्र ) दोनों प्रतिबिंबित हुए हैं । तथा स्वरूपाचरण ( सम्यक्त्वाचरण ) की धातक अनंतानुबंधो कषाय है और संयमाचरणको घातक (अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यानादि कषायें हैं)। संयमाचरण अर्थात् सरामचारित्र या व्यवहारचारित्रके ही मेद {१) सामायिक {२) छेदोपस्थापन (३) परिहारविशुद्धि ( ४ ) सुक्ष्मसाम्पराय ( ५ ) यथाख्यात हैं, ऐसा समझमें आता है क्योंकि इनमें चरणानुयोगको मुख्यता रहती है ( बाधाचरण सुधारा जाता है)। चरणानुयोगका चारित्र बाह्यशरीरादिकी क्रियाओं पर निर्भर ( अवलम्बित ). रहता है और करणानुयोगका चारित्र भीतर ( अंतरंग ) भावों पर निर्भर रहता है यह भेद है तथा स्वरूपाचरणचारित्र शुद्ध वीतरागतारूप है और संयमाचरण शुभरागरूप अशुद्ध है।
चारित्रधारियोंके भेव व मान्यता (१) मुनि ( सुगुरु ) अर्थात् सच्चे वीतरागी, विषयकवायके त्यागी, मोक्षमार्गके सम्यक आराधक, पंचाचारके पालनेवाले इत्यादि मूलगुण सम्पन्न, तत्त्वज्ञानी मुनि या सुगुरु कहलाते हैं।
(२) मुनिवेषी ( कुगुरु ) अर्थात् मात्र बाह्य वेषको धारण करनेवाले, भावलिंग ( सम्यादर्शनादि ) रहित, विषयकषायपोषक, बरायनाम नाममात्र ) मूलगुणधारक, रागीद्वेषो, निन्दास्तुति व विनय अविनयका ख्याल करनेवाले समष्टिरहित-असत्वज्ञानी-वेषी या पाखंडी मुनि कहलाते हैं । उनको सुगुरु मानना अज्ञानता है क्योंकि सच्चेके न होनेसे झूठेको सच्चा ममना हंसके अभावमें कौआको हंस मानने के समान है, कौआ कभी हंस नहीं हो जाता, कौआ ही रहता है, मान्यता से वस्तु नहीं बदल जाती यह नियम है। फल भी सच्चे जैसा नहीं मिलता। तब जैसा जो हो उसको वैसा हो मानना सम्यग्दर्शन है और अन्यथा मानना अर्थात् जैसे को तैसा न मानना मिथ्यादर्शन है जो अपराध है बड़ा पाप है। उसको पुण्य मानना व अपराधको छुटाने वाला मानना मिथ्यात्व है। निर्धार करना चाहिये ऐसा कांच हीरा नहीं हो जाता। परीक्षा करके मान्यता करना श्रेष्ठता बतलाई गई है, वह मिथ्यात्व नहीं है सम्यक्त्व है ॥ २१२१२१३३२१४ ३३
आचार्य आगे और भी खुलासा करते हैं कि बंधके कारण योग और कषाय हैं, रत्नत्रय नहीं है।
योगात्प्रदेशबन्धः स्थितिबन्धो भवति तु कषायात । दर्शनबोधचरित्रं न योगरूपं कषायरूपं च ।।२१५॥