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पुरुषार्थसिचधुपाय
योगकषाय बंधक कारण-बंध चतुर्विध होता है। प्रकृतिप्रदेश थिति अरु अनुभव क्रमशः साय उपजता है। दर्शनशानसरिन नहीं है, योगकषायरूप तीनों।
अतः उन्होंसे बंध न होता-मोक्ष होत निश्चय जानी ।। अन्य अर्थ ---आचार्य कहते हैं कि [ योगाप्रदेशचंधः ] योगसे अर्थात् आत्माके प्रदेशों में कंपनरूप क्रिया होनेसे प्रदेशबन्ध ( प्रकृतिबंधके साथ ) होता है [तु कषायात् स्थितिबंधो मबलि ] और कषायसे ( विकारीभावोंसे ) स्थितिबंध ( अनुभागके साथ होता है। इस प्रकार बंधके दो कारण जुदे-जुके हैं। परन्तु [ दर्शनबोधचरिधं, न योगरूपं न च कषायरूपं ] दर्शन-ज्ञान-चारित्र ये तीनों न योगरूप हैं न कषायरूप है तब इनसे बंध कैसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता, यह तथ्य है, भ्रममें नहीं पड़ना चाहिये ।। २१५ ।।
___ मावार्थ ल मा हाहण खमाव की बदलता नहीं है किन्तु वह हमेशा कायम रहता है। ऐसी स्थिति में योग और कषायका स्वभाव बन्ध या श्लेष करनेका है सो हमेशा करेगा और दर्शनशानचारित्रका स्वभाव मोक्ष करनेका है सो वही करेगा, दूसरा विरुद्ध कार्य वह नहीं कर सकता । फलतः रत्नत्रयसे बन्ध नहीं होता यह निश्चित है, न कभी रत्नत्रय योग व कषायरूप होते हैं यह भी निश्चित है। इस शाश्वतिक व्यवस्थामें कोई दखल नहीं दे सकता अर्थात् रद्दोबदल (परिवर्तन ) नहीं कर सकता यह ध्रुव है। दो द्रव्ये ( जीव व पुद्गल ) ऐसी हैं जिनका परिणमन विभाव या विकाररूप ( अशुद्ध ) भी संयोगी अवस्थामें हो जाता है क्योंकि उनमें जन्मसिद्ध । स्वत:सिद्ध ) वैसी शक्ति (वैभाविको ) हैं किन्तु शेष चार द्रव्योंमें वैसी शक्ति नहीं है न वे विभावरूप कभी परिणत होती हैं। परिणमन भी दो तरहका होता है (१) अर्थरूप ( सूक्ष्म ) (२) व्यंजन रूप ( स्थूल )। तथा विभावरूपी परिणमन भी दो तरहका होता है (१) विभाव व्यंजनरूप (२) स्वभाव व्यंजनरूप । अनेक समय व अनेक प्रदेशोंके समुदायरूप परिणमनको व्यंजन परिणमन ( व्यंजनपर्याय ) कहा जाता है।
संयोगीपर्यायमें जीव और पुद्गलका बन्ध ( परस्पर श्लेष) होता है परन्तु उनका परस्पर निमित्तनैमित्तिकसम्बन्ध ही रहता है, औपादातिकसम्बन्ध नहीं रहता। यह खास भेद समझना चाहिये । औपादानिकसम्बन्ध, जिस द्रव्यमें जो कार्य या पर्याय होती है उसका उसीके साथ रहता है, अन्यके साथ कदापि नहीं रहता यह नियम है ।
कर्मबन्ध और नौकर्मबन्ध आठ प्रकार ( ज्ञानावरणादि )के कर्मोका संयोगरूप बन्ध होना, कर्मबन्ध कहलाता है, १. उक्तंच
निर्वय॑ते येन यदा किचित्तदेव तत्स्यान्न कथं च नान्यत् । रुकोण निवृत्तमिहासिकोर्ष पश्यन्ति रुपमं न कथं च नासि ||३८॥ समयसारकलश