Book Title: Purusharthsiddhyupay
Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni
Publisher: Swadhin Granthamala Sagar

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Page 413
________________ કરે पुरुषायसिन्धुपाय एषा, सम्यक् प्रहनिक्षेप: सम्यक युसर्गः ] और अच्छी तरह शुद्ध भोजन करना, अच्छी तरह देख शोधकर उपकरण आदिको उठाना धरना, निर्जन्तु स्थानमें मलक्षेपण करना । टट्टो पेशाब आदि करना) [इति समिति: पच ] ये पाँच समितियां होता है। व्रतीको इनका पालना अनिवार्य है 11 २०३॥ भावार्थ-इम पांच समितियोंके पालनेका उद्देश्य एकमात्र जीवरक्षा करनेका है। अच्छी तरह सावधानीपूर्वक अर्थात् प्रमाद छोड़कर कार्य या प्रवृत्त करनेसे जीवोंका घात ( हिंसा } नहीं होता, उससे पुण्यका बंध होता है.....सदाचार बढ़ता है, लोक प्रतिष्ठा होती है। हिसाका न होला अहिसाबल पालना है, जो परमधर्म रूप है ! यहाँपर दयापरिणाम या करुणाभावको 'धर्म में भारिल किया गया है, जो लयदारनयका कथन है । निश्चयनयसे शुभरागका होना भी अहिंसा नहीं है कारण [क उससे स्वयं जीवके स्वभावभावका घात होता है। निश्चयनयसे रागद्वेषका पूर्ण अभाव होना । बीत रागता आना ही परम अहिंसा धर्म है। परन्तु व्यवहारनयसे समितियों को पालना भी धर्मायतन है ( प्रशस्त रागरूप है ) ऐसा समझना चाहिये। कहीं-कहीं व्युत्सर्ग के स्थानमें 'प्रतिष्ठापना' समिति लिखा है, खाली नामभेद है, अर्थभेद नहीं है किम्बहना । शुभकार्य में प्रवृत्ति होना भी व्रत या धर्म कहलाता है और अशुभसे निवृत्ति होना भी व्रत या धर्म कहलाता है ऐसा समझाना चाहिये यह लोकाचारको बाल है, अस्तु, सागारधर्मामृत अध्याय २ में देखो ॥२०३१॥ आगे श्रावकको दश धर्मोका पालना अनिवार्य बताते हैं । प्रत्येकका लक्षण धर्मः सेव्यः शान्तिदुत्वमृजुता च शौचमथ सत्यम् । आकिश्चन्यं ब्रह्म त्यागश्च तपश्च संयमश्चेति ।।२०४॥ पद्य क्षमा मार्दव आर्जव सीनों, वश्य शौच दोनों पहिचान । श्राकिन्चन्य ब्रह्म अरु स्थागः सप संथम श्रेदश परिमान । धर्म नाम है इनका भाई इनसे होत आत्मकल्यान । अतः इन्होंका पालन करना अतियों का कत्तव्य प्रधान ॥ २० ॥ अन्वय अर्थ आचार्य कहते हैं कि [क्षान्ति:मृदुरव ऋजुता शौचं अथ सत्यम् ] क्षमा, मार्दव, आजब, शौच, सत्य ये पांच [च आकिंजन्यं ब्रह्मा ध्याग: तपः संयमश्वेति ] आकिन्चन्य, ..-. -..-.- - १. उत्तमशमामार्दवार्जशौचसत्यसंयमतपत्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्म: ।। ६ ।। अ० १. त० सू । २. परिग्रहका बिलकुल ( पूर्ण ) त्याग हो जाना अर्थात् किंचित् ( रंचमात्र ) भी परिग्रहका न रहना। ३. दान देना।

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