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अन्तिम निष्कर्ष भावका होना मुख्य है, बाह्य आरंभपरिग्रहका छोड़ना यह मोटी बात है, इससे हो मनिपद नहीं होता। मुनिपदमें पाँच बातें बाह्यमें होना अनिवार्य हैं ( १ ) दिगम्बरवेष (नग्नपना ) । (२) केशलुचन। ( ३ ) जातिशुद्धि । ( ४ ) शरीर संस्कारका त्याग ! ( ५ ) बाह्य आरंभपरिग्रहका सर्वथा त्याग। इसी तरह भाव बातें अहममें भी होना चाहिये ( मिताभाव आदि)। इस विषय में प्रवचनसारकी गाथा मं०२३७ में कहा है कि......
हि आममेण सिसिदि मद्दहणं दि प अत्थेसु ।
सहमाणो अत्थे अमंजदो ना प्य णिव्यादि ।।२३।1.---प्रवचनसार कुन्दकुन्दाचार्य अर्थ----अकेले आगमके ज्ञानसे मुक्ति नहीं होती जबतक कि तत्त्वार्थका (पदार्थोका ) श्रद्धान न हो अर्थात् जान लेनेपर भी यदि श्रद्धान न हो तो मोक्ष नहीं होता तथा श्रद्धान हो जानेपर भी जबतक संयम ( चारित्र ) न हो तबतक मोक्ष नहीं होता। फलतः सम्यग्दर्शन सभ्यग्जाम सभ्यचारित्र ये तीन ही मोक्षके मार्ग हैं और तीनौको पूर्णता निश्चयसे होना अनिवार्य है। एक भी कम नहीं होना चाहिये। आगमका ज्ञान अर्थात् अध्यात्मका ज्ञान, जो आममका सारभूत पद है। कहा भी है.
आगमधुब्छा दिदी ॥ भवधि जस्सह संजमो तस्ल ।
स्थि सि भगद सुतं असंजदो भवदि कि समयी ॥२३॥-प्रवचनसार जिस मुनिके आगम { अध्यात्म ) का ज्ञानपूर्वक श्रद्धान न हो, उसके संयम हो नहीं सकता, वह असंयमी होता है कारण कि विना भेदज्ञानके किसका त्याग व किसका ग्रहण किया जाय यह निर्धार हो नहीं सकता ! अतएव जिसके आगमका ज्ञान और तत्पूर्वक तत्त्वार्थश्रद्धान एवं संयमभाव ( चारित्र ) ये तोनों एक साथ पाये जायें यही मोक्षमार्गी साधु है अन्य नहीं, यह सिद्धान्त है ।।२३६॥
आगे आचार्य इस प्रश्नका उत्तर देते हैं कि-विकल या असमग्र या अपूर्ण एकदेश, रलत्रयधारीके कर्मोंका बंध जो होता है, उसका क्या कारण है ? अर्थात् वह बंध काहेसे होता है ?
असमग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबंधो यः। स बियक्षकृतोऽवश्य, मोक्षोपायो न बंधनोपायः ॥२१॥
पद्य एकदेश रत्नत्रधारी, के जो धन होता है। वह विपक्षसे होत बरावर, ऐसा निश्चय कहता है ।। असः बंधका कारण के हैं, जो रागादिक साध भरे ।
मही मोक्षका कारण बे हैं, जबतक रागन दूर करे ॥२१॥ अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ असमग्रं रस्नप्रथं भावयसः ] अपूर्ण या एकदेश ( विकल अल्प) रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्रको प्राप्त करनेवाले (मुनि या श्रावक)के
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