Book Title: Purusharthsiddhyupay
Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni
Publisher: Swadhin Granthamala Sagar

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Page 426
________________ भीम निष्कर्ष ४१५ क्योंकि वह साक्षात् मोक्षका मार्ग है ऐसा समझना चाहिये | यह कर्त्तव्य सरागी श्रावकका पहिला है, पश्चात् क्या करना चहिये, यह आगे बताया जायगा । विशेष खुलासा — विकलका दूसरा अर्थ - एकदेश भी होता है, वह दर्शन ज्ञान चारित्र सभी में लगता है। जघन्य भी उसीका अर्थं होता है । फलत: विकल- अपूर्ण असमग्र - एकदेश- जघन्य इत्यादि शब्द एकार्थवाचक है | अकेलासकल- पूर्ण-सर्वदेव- उदाइत्यादि है यान रखा जाये । नोट - अन्य मतावलंबियोंने मोक्षके दो भेद माने हैं (१) सालोकमोक्ष ( स्वर्गरूप ), (२) निरालोकमोक्ष ( आवागमन से रहित निरत्ययरूप ) । परन्तु जैनशासन में सालोकमोक्ष ( स्वर्ग ) नहीं माना गया है क्योंकि वह तो संसारका ही एक भेद है, वह निराबाध ( जन्म मरणादिसे रहित ) नहीं है किन्तु बाबासहित और अनित्य है अतएव वह मोक्षरूप भी नहीं है । जैन लोगोंको यह भ्रम मिटा देना चाहिये। रत्नत्रयकी विकलता रहते हुए मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता, स्वर्ग प्राप्त हो सकता है । अतएव प्रश्न होता है कि रत्नत्रयको पूर्णता कौन कर सकता है अर्थात् रत्नत्रयको पूर्ण करने की पात्रता ( योग्यता ) किसमें है यह बताया जावे ? उसका उत्तर आगे श्लोक में दिया जा रहा है कि निश्चयसे रत्नत्रयको पूर्णता या समग्रता, जबतक रागादिकका अर्थात् मोहनकर्मका सद्भाव ( अस्तित्व ) रहता है या घातिया कर्मो का बंध होता रहता है, तबतक नहीं होती चाहे वह मुनिपद धारी ही क्यों न हो जाय । असलमें जहाँ घातिया कर्मोका स्रव और स्थिति--अनुभाग बंधका होना बन्द हो जाता है वहीं, रत्नत्रय पूर्ण हो जाता है | बिना स्थिति- अनुभाग के अघातिया कर्मोंका बंध तो नाममात्रका बंध है । आस्रव रूप ही है ) उससे हानि ( स्वभावका बात ) नहीं होती ऐसा समझना चाहिये ।। २०९ ॥ नोट - - आस्रव और बंधका भेद पेश्तर बताया जा चुका है वैसा ही यहाँ भी सम झना । जिसमें स्थिति अनुभाग न पड़े सिर्फ प्रकृति- प्रदेशरूप ही रह जाय उसको ईर्यापथ आव कहते हैं । आचार्य रत्नत्रयको पूर्ण प्राप्त करनेकी पात्रता ( योग्यता ) जिसमें है वह बताते हैं ( मुनि पदमें है ) बद्धोयेमेन नित्यं लब्ध्वा समयं च बोधिलाभस्य । पदमालम्ब्य मुनीनां कर्त्तव्यं सपदि परिपूर्णम् || २१०॥ १. उक्तं च . सणणाण चरित्रं जं परिणमदि जहणभावेण । पाणी ते दु बंधदि पुलकम्मेण विविण ॥। १७२ ।। समयसार अर्थ --जबतक दर्शन ज्ञान चारित्र जघन्य दरजेके अर्थात् अपूर्ण या एकदेश रहते हैं ( रागादिसहित होते हैं ) तबतक ज्ञानी ( भेदज्ञानी सम्यग्दृष्टि ) अनेक तरहके पुद्गल कर्मोका बंद करता है मुक्त नहीं होता । २. श्रावकोत्तम मुमुक्षु साधक । ३. मौका अथवा आगमका ज्ञान प्राप्त करके । +

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