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दसवाँ अध्याय
( अन्तिम निष्कर्ष )
आचार्य उपसंहाररूप कथन करते हुए मुमुक्षुको कर्तव्य पालन करनेका क्रम बतलाते हैं । इति रत्नत्रयमेतत् प्रतिसमयं विकलेमपि गृहस्थेन । परिपालनीयमनिशं निरत्ययां मुक्तिमभिलषिता ॥ २०९ ।।
पक्ष
जो श्रावक यह चाह करत है, मुक्ति मुझे प्रापत होवे । उसका यह कस्य कहा है, रश्नत्रय को वह सेवे ॥ चाहे वह अपूर्ण ही होवे, तौ भो धारण है करना | क्रम-क्रम से पूरण होता है, मुकिरमा अन्तिम बरना ॥ २०९ ॥
अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ अनिशं मिरत्ययां मुकिमभिलषता गृहस्थेन ] निरंतर निराबाध व नित्य मुक्ति (मोक्ष) को चाहने वाले श्रावकको चाहिये ( उसका कर्त्तव्य है ) कि [ समयं किमपि एतत रस्त्रश्रयं परिपालनीयम् ] वह विकल अर्थात् अपूर्ण ( रामादि विकार सहित ) रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन- सम्यज्ञान सम्यक्चारित्र ) को भी धारण-पालन करे, जैसा कि पेश्तर बतलाया गया है, क्योंकि उसके बिना मुक्ति नहीं होती यह नियम है । २०९ ॥
भावार्थ -- मोक्षको अभिलाषा करने वाले ( मुमुक्षु ) जीवोंका कर्त्तव्य है कि वे पेश्तर मोक्षके मार्ग ( सम्यग्दर्शनादित्रय) को प्राप्त करें, अर्थात् मोक्षका उपाय अपनायें, तभी उसको प्राप्ति हो सकती है, अकेले चाह करने से कुछ नहीं होता। ऐसी स्थिति में चाहे वह रत्नत्रय पेश्तर अपूर्ण ( बिकल ) ही क्यों न प्राप्त हो परन्तु उसको प्राप्त करना ही चाहिये ( अनिवार्य है ) बिना उसको प्राप्त किये कुछ नहीं होता वह मूलघन है । यद्यपि निश्चयनयसे अविकल अर्थात् पूर्ण रत्नत्रय हो साक्षात् मोक्ष प्राप्तिका मार्ग या उपाय है तथापि प्रारम्भमें वह रत्नत्रय विकल (अपूर्ण) ही प्राप्त होता है, पश्चात् वह सकल अर्थात् संपूर्ण या समग्र होता है ऐसा नियम है।
प्रश्न - विकल और सकल ( अविकल ) का क्या अर्थ है ? इसका उत्तर इस प्रकार है कि 'विकल अर्थात् अपूर्ण, जो कि रागादिक विकारोंके साथ रहते हुए पूरा नहीं हो सकता है । तदनुसार विकलका अर्थ रागादि मल या विकार सहित जो साक्षात् मोक्षका मार्ग नहीं होता किन्तु तबतक बंध होता रहता है । और 'अविकल' का अर्थ पूर्ण अर्थात् रागादिसे रहित, वीतराग,
१. अपूर्ण या असमग्र, न्यून एकदेश, त्रुटि सहित, हीन इत्यादि ।