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पुरुषार्थसिवापाथ नहीं करता, न रोग उपस्थित होने पर घबड़ाता है, न दुःखका अनुभव करता है वह वस्तुका परियमन समझ संतुष्ट रहता है। यही रोगपरीषहका जय है।
१२) मलपरीषह-शरोरमें मैल आदि लग जाने पर मोही जीव कष्टका अनुभव करते हैं, दुःस्व मनाते हैं, उसको छुटाते या दूर करते हैं, हमेशा शरीरको स्नानादि द्वारा सफाई करते हैं, किन्तु निर्मोही साधु त्यागी यह कुछ नहीं करते, मलकी बाधाको समताभावसे सह लेते हैं । यही मलपरीषहका जय है । वे शरीरका संस्कार कतई नहीं करते, उनका बह मूलगुण है।
(१३) तृणस्पर्श परीषहमान शरीर व नरमपाँवोंके होने पर कड़ाघास या उसके डआ, कोटा, कंकर, पत्थर की बाधा स्वभावत: होती है किन्तु निर्मोही साधवती उसकी परवाह
करके समताभावसे सह लेते हैं. अर्थात दःख नहीं मानते. परत्वको भावना रखते हैं अतएवं उससे राग नहीं करते। यह तृणस्पर्शपरीषद है।
(१४ ) अज्ञानपरीषह-ज्ञानावरणीकमके कमती क्षयोपशम होने पर, यदि चिरकाल सक, स्वाध्याय, तत्त्वोपदेश आदिका निमित्त मिले और विशेष ज्ञान न हो तो मोही जीवको स्वभावतः दुःख उत्पन्न होता है। लेकिन निर्मोही साधुके यदि विशेषज्ञान न हो तो वह दुःख नहीं मनाता कारण कि वह वस्तुके परिणमन पर विश्वास करता है, कि जब जैसा होना है वैसा ही होगा अन्यथा नहीं हो सकता। यह अज्ञानपरोषह जय है।।
(१५) अदर्शनपोपह-वरकालत कठिन तपस्या करनेपर मो याद कोई ऋद्धि आदिका अतिशय प्रकट न हो तो मोही जीवको दुःख उत्पन्न हो सकता है, किन्तु जो साधु निर्मोही रहते हैं, चे बिलकुल दुःख या खेद नहीं मनाते समभाव धारण करते हैं, वस्तुके परिणमनपर वे विश्वास करते हैं, सन्तुष्ट रहते हैं। यही अदर्शनपरीषह जय है।
(१६) प्रज्ञापरीषह-बुद्धि का पूर्ण विकाश होनेपर अर्थात् ज्ञानाबरणकर्मके विशेषक्षयोपशमसे बुद्धि में अतिशय प्रकट होजानेपर सूक्ष्मतत्त्वादिको समझने की योग्यता प्राप्त होजामेपर, किसी किस्मका अहंकार नहीं होना समताभाव रखना, प्रज्ञापरीषहजय कहलाता है। रागी द्वेषी जीव मोहबस थोड़े-थोड़े उत्कर्ष होनेपर मान अहंकार करने लगते हैं यह विशेषता रहती है ।
(१७ ) आदर सत्कारपरोषह-यदि कोई किसोका आदरसत्कार ( सन्मान ) न करे तो रागीद्वेषी मोही जीवको स्वभावतः दुःख उत्पन्न हो जाता है। किन्तु बीतरागी साधु अपमान होनेपर या आदरसत्कार न होनेपर दुःख नहीं मनाते-समभावसे सहलेते हैं। भवितव्यपर निर्भर रहते हैं कि ऐसा ही होना था उसे कौन टाल सकता है ? सन्तुष्ट रहते हैं।
(१८) शय्यापरीषह-यदि सोने में बाधा आजाय, ठीक स्थान या विस्तर आदि न मिले तो आरामी परिग्रही जीवको दुःख उत्पन्न होजाता है किन्तु वीतरागी साधु ककर पत्थरवाली जमीनपर भी थोड़ा सो जाते हैं और दुःखका वेदन नहीं करते-समताभावसे सहन कर लेते हैं । यह शय्यापरीषहजय है।
( १९ ) पर्यापरीषह-दूर-दूरसे आनेमें व थकावट होनेमें रागोद्वेषी जीवोंको स्वभावतः