Book Title: Purusharthsiddhyupay
Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni
Publisher: Swadhin Granthamala Sagar

View full book text
Previous | Next

Page 422
________________ सकलचारित्रप्रकरण 1 असंभव या कठिन है, फिर इकदम पूर्ण शरीरपरसे सब वस्त्रोंको त्याग देना और लज्जा व संकोचका न होना बड़ी बोरता है-समष्टि है, वीतरागताकी निशानी है। इस महान परीषहको सहन करना महात्माओंका ही काम है, उसका पालन करना उनका कर्तव्य है। वे निर्विकार बालककी तरह रहते व आचरण करते हैं। (६) याचनापरीषद-दूसरेसे मांगना या बिना बुलाए आहारार्थ दूसरेके घर जाना, यारागा कामालाई करने जीत अपनी तौहीनी या मानहानि समझता है। यदि कदाचित् उसे वैसा करना हो पड़े तो उसको महान् दुःख होता है, कारणकि चारित्रमोहके उदयमें वह संभव नहीं है। परन्तु साधुन्नतीके मन में वह मान इतना कमजोर ( मन्द था क्षीण हो जाता है कि परघर बिना बुलाये जाते समय रचमात्र भी अपमानका अनुभव नहीं होता-संक्लेशता या विकल्प नहीं होता, बिना रागद्वेष किये जाते हैं। सगीद्वेषी जीव वैसा नहीं कर सकते। मांगना बड़ी बुरी बला है। हाँ साधुव्रती भोजनके उद्देश्यसे ही चर्या करते हैं किन्तु दीनता नहीं दिखातेन मुंहसे मांगते हैं । मौन रखते हैं ), न इशारा करते हैं, न बिना आदर दिये ( नवधा भक्ति विना } आहार लेते हैं यह बड़ी महानता है। इससे मालूम पड़ता है कि वे भाग्यको परीक्षा करनेका मुख्य लक्ष्य रखते हैं और भोजनका लक्ष्य गौण रखते हैं, वह भी उपेक्षावृत्तिसे, गर्तपूरणन्यायसे, हर्षविषाद नहीं करते। बस यही परीषह ( याचना ) जय कहलाता है । (७) अरतिपरीषह-पूर्वके भोगे हुए भोगों या क्रीड़ाओंका स्मरण होना, उनमें राग या प्रोति होना स्वाभाविक है किन्तु साधु मुनि इतने निर्मोह हो जाते हैं कि उस तरफ ख्याल हो नहीं करते, न प्रतीकार करते हैं इष्ट व अनिष्ट सब समताभावसे रागद्वेष किये बिना सह लेते हैं। यह परोषह चारित्रमोहके उदयसे ही होती है परन्तु वह मन्द या क्षीण हो जाता है। यही अरति परीषहका जय है कि अनिष्ट व इष्ट में दुःख नहीं मनाता । (८) अलाभ परीषह-जब कोई चीज इच्छानुसार प्रयत्न करने पर भी रागीद्वेषोको नहीं मिलती है तब उसको महान् दुःख होता है, यह स्वाभाविक बात है। परन्तु साधुमुनिको इच्छा होने पर यदि कोई वस्तु ( आहारादि ) नहीं मिलती है तो वे दुःख नहीं मनाते, सहन कर लेते हैं। यही अलाभपरोषहजय है। (२) दशमशकपरीषह-मच्छरवगैरहके काटने पर स्वभावतः दुःख उत्पन्न होता है किन्त शरीरादिसे निर्मोही त्यागियोंको डांसमच्छरखटमल आदि द्वारा काटे जाने पर भी वे दुःखका वेदन नहीं करते और समताभावसे वे पीड़ा सह लेते हैं। बस यही परीषहका जय है।। (१०) आक्रोशपरोषह--आक्रोशका अर्थ निन्दा है। जब कोई जीव रागद्वेषी ( मोही) को निन्दा करता है तब उसको स्वभावतः दुःख होता है किन्तु वीतरागी विपरीत ( विकारके) कारणोंके उपस्थित होने पर भी ( दुष्टों द्वारा निन्दा मारन ताड़न किये जाने पर भी) मनमें संक्लेशता नहीं लाते----दुःख नहीं मनाते सब समताभावसे सह लेते हैं । यही परोषह जय है। (११) रोगपरीषह-बीमारी आदिके होने पर मोहो जीवोंको बड़ा दुःख व संक्लेशता होती है और उसके प्रतीकारके लिये औषधि आदि वे करते हैं परन्तु निर्मोही साधु कोई औषधि

Loading...

Page Navigation
1 ... 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478