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(५) अगचित्वभावना शरीर स्वभावसे अचि है-मलमत्रादिका पिंड है। दण्डागह जैसा है ) उसमें से सदैव मल नवद्वारों द्वारा बहता रहता है और आत्मा शुचि या निर्मल है फिर दोनोंकी एकता हो नहीं सकती एवं शरीरके पीछे आत्माको अशुचि । अपवित्र ) मानना मूलमें भूल है ऐसी स्थिति में शरीरको मल-मलकर साफ करमेसे शरीरका ऊपरी मल छूट सकता है किन्तु भोतरी मल नहीं छूट सकता, म आत्माका मल ( रागादिविकार ) छूट सकता है। अतः आत्मशुद्धि के विना बरोरकी झुद्धिसे मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता ऐसा जानना 1 फलत: आत्मशुद्धिका उपाय सदेय करना चाहिये व आत्मागे हो आस्था ( श्रद्धा ) रखना चाहिये, शरीरमें नहीं, यह तात्पर्य है।
(६ ) आस्रव भाबना-नवीन कर्मोका आना 'आस्रव कहलाता है जो हेय है । अतएव योग व कषाय के दूर करने का हमेशा प्रयत्न करना चाहिये क्योंकि दोनों के निमित्तसे कस्त्रिय होता है। आलयके मूल में दो भेद होते हैं ( १ ) द्रव्यास्त्रक । ( २ ) भावात्रव । कामणि द्रव्यका आना द्रव्यास्रव कहलाता है और रागादिविकारी भावोंका आना (प्रकट होना ) भावास्रव कहलाता हैं जिसके ५७ भेद होते हैं । मिथ्यात्व ५, अविरत १२. कषाय २५, योग १५, कुल ५७ भेद समझना । प्रभादका अन्तर्भाव कषायमें होता है। निश्चयसे 'आत्माके प्रदेशोंका कंपन होना' आस्रव कहलाता है जो द्वारस्य है । बार-बार आस्रव न होनेका धिचार करना च प्रयत्न करना अनुप्रेक्षा कहलाती है ! आस्रव कारणरूप है और बंध कार्यरूप है ऐसा समझना । सुक्ष्मभेद श्लोक नं० २०२ में प्रश्नोत्तररूपसे बताया गया है।
(७) संसारानुप्रेक्षा-संसारके स्वरूपका चिन्तबन करना, उसकी बुराइयोंकी ओर स्मरण करना, व्यान रखना । ऐसा करनेसे संसारसे विरक्ति होती है और उसका उपाय विवेकोजन करने लगते हैं, जिससे हित होता है । मोक्ष प्राप्तिका यह एक साधन है।
(८) लोकानप्रेक्षा--षट द्रव्यात्मक लोकका स्वरूप व उसको रचनाका विचार करना लोकानुप्रेक्षा ( भावना ) कहलाती है। यह लोक स्वयं ही बना है, किसीने इसे बनाया नहीं है, यह अनादिनिधन है, नित्य अकृत्रिम है तथा न इसको रक्षा कोई करता है न इसका विनाश कोई करता है, इसके सभी कार्य ( पर्यायें ) स्वतः सिद्ध { सहज स्वभाव ) होते हैं। अन्य मतावलंबियों जैसा इसका कर्ता भर्ता-हर्ता कोई नहीं है ( त्रिशक्तिवाला ईश्वर आदि ) 1 फलतः वस्तुका स्वतंत्र परिणमन समझ किसीपर रागद्वेष नहीं होता - संतोष रहता है । व्यवहारसे नैमित्तिकता मानो जाती है । दृश्यमान लोक पुद्गल द्रव्यको पर्यायें हैं ।
(९) धर्मानुप्रेक्षा-धर्मका अर्थात् बस्तुके स्वभावका चिन्तवन करना धर्मानुप्रेक्षा कहलाती है। अथवा स्यबहारधर्म ( उत्तमक्षमादि अनेकप्रकार का चिन्तवन करना भी धर्मानुप्रेक्षा है। निश्चय व व्यवहारधर्मके चिन्तवनसे ग्रहण व त्याग करनेकी भावना होती है और बैसा करता भी है।
१. पंचपरावर्तनका स्वरूप आगे बतलाया जायेगा जो संसाररूप है।
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